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संस्कृत पदानुवाद ज्ञानं च दर्शनं चैव, चारित्रं च तपस्तथा । वीर्यमुपयोगश्चैतज्जीवस्य लक्षणं ॥५॥
शब्दार्थ नाणं - ज्ञान
तहा - तथा च - और
वीरियं - वीर्य दंसणं - दर्शन
उवओगो - उपयोग चेव - निश्चय
य - और चरित्तं - चारित्र
एयं - ये च - और, एवं
जीवस्स - जीव के तवो - तप
लक्खणं - लक्षण हैं।
भावार्थ ५ ज्ञान और दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य तथा उपयोग ये जीव के लक्षण
है ॥५॥
- विशेष विवेचन लक्षण की व्याख्या :
जो धर्म अथवा गुण जिस वस्तु का कहलाता है, वह उसमें सर्वथा व्याप्य हो, उसके सिवाय अन्य किसी भी वस्तु में संभव न हो, वह लक्षण कहलाता है । लक्षण को सदा असाधारण धर्म से युक्त होना चाहिए ।
तर्कशास्त्र में लक्षण के ३ दोष बताये गये हैं -
१. अव्याप्ति : 'लक्ष्यैकदेशवृत्तित्वम्' अर्थात् जो धर्म लक्ष्य पदार्थ के एक अंश में रहे । जैसे 'गो:कपिलत्वम्' कपिलत्व गाय का लक्षण है। यहाँ गाय का लक्षण कपिल वर्ण बताया परंतु सब गायें केवल कपिल वर्ण की नहीं होती हैं। कोई सफेद तो कोई काली भी होती है। अतः कपिलत्व संपूर्ण गाय जाति का लक्षण नहीं हो सकता । यह लक्षण अधूरा होने से अव्याप्ति दोष है। २. अतिव्याप्ति : 'अलक्ष्यवृत्तित्वम्' अर्थात् जो धर्म लक्ष्य पदार्थ के
- -- -- -- श्री नवतत्त्व प्रकरण
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