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संपराय गुणस्थान में प्रवर्तित जीव का सूक्ष्म संपराय चारित्र कहलाता है। इसके भी दो भेद हैं :
१. विशुध्यमान : क्षपक या उपशम श्रेणी चढने वाले साधु के परिणाम उत्तरोत्तर शुद्ध रहने से उनका सूक्ष्मसंपराय चारित्र विशुध्यमान कहलाता है।
२. संक्लिश्यमान : उपशम श्रेणी से गिरते हुए जीव के १० वें गुणस्थानक में संक्लिष्ट परिणाम होने से उसका चरित्र संक्लिश्यमान कहलाता है।
- ५. यथाख्यात चारित्र : यथा-जैसा (अरिहन्तों ने) ख्यात - कहा है, वैसा संपूर्ण चारित्र यथाख्यात चारित्र है । अथवा सर्वजीवलोक में प्रसिद्ध चारित्र यथाख्यात है अथवा अकषायी साधु का यथार्थ चारित्र यथाख्यात है। इस चारित्र से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। यह चारित्र भी चार प्रकार का है -
१. उपशान्त यथाख्यात चारित्र : ग्यारहवें गुणस्थान में मोहनीय कर्म के उदय का तो सर्वथा अभाव हो जाता है परंतु यह कर्म चूंकि सत्ता में विद्यमान होता है, अत: उस समय का चारित्र उपशान्त यथाख्यात चारित्र कहलाता है। ५ २. क्षायिक यथाख्यात चारित्र : १२ वें गुणस्थान में मोहनीय कर्म का पूर्णतः क्षय हो जाता है; अतः उस समय का चारित्र क्षायिक यथाख्यात चारित्र कहलाता है। ____३. छाद्यस्थिक यथाख्यात चारित्र : ११ वें और १२ वें गुणस्थान में उपरोक्त दोनों प्रकार का चारित्र छाद्मस्थिक यथाख्यात चारित्र कहलाता है।
४. कैवलिक यथाख्यात चारित्र : केवलज्ञानी को १३ वें गुणस्थान में क्षायिक भाव का चारित्र 'कैवलिक यथाख्यात चारित्र कहलाता है। निर्जरा तथा बंध तत्त्व के भेद
गाथा बारसविहं तवो णिज्जरा य, बंधो चउ विगप्पो अ । पयइ टिइ - अणुभागप्पएस भेएहिं नायव्वो ॥३४॥
- अन्वय
बारस विहं तवो णिज्जरा य, पयइ-ट्ठिइ-अणुभाग-प्पएस, भेएहि बंधो चउ विगप्पो नायव्वो ॥३४॥
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श्री नवतत्त्व प्रकरण