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आसक्त बनकर जीव जहाँ अनंत संसार का परिभ्रमण बढाता है, वहीं इनसे अपने आप को अलग कर कर्मक्षय भी कर सकता है। रागद्वेष, क्रोध, कषाय में सबसे बड़ा निमित्त है पुद्गल । जीव धन, वैभव, सत्ता, संपत्ति को प्राप्त करके शाश्वत् तथा अनंत ज्ञान-दर्शन-चारित्रमय स्वभाव को विस्मृत कर जाता है । क्षणिक, विनाशी और जड पुद्गलों के निमित्त से जीव नरक तक का आयुष्य बांध लेता है और इन्हीं पुद्गलों का उदासीन भाव से सहयोग लेकर वह अजर- अमर पद भी प्राप्त कर सकता है। इन पंचास्तिकाय के स्वरूप को जो यथार्थ रूप से समझ लेता है, वह अवश्यमेव संसार के बंधनों से मुक्त हो जाता
४६८) संसार में हमें अनंत पदार्थ दृष्टिगत होते हैं, फिर द्रव्य की संख्या छह
ही क्यों मानी गयी है ? उत्तर : द्रव्य छह इसलिये माने गये हैं कि इन सभी के गुण एक दूसरे से
नहीं मिलते है। जिसमें त्रिकाल सहचारी कोई भी विशेष गुण न हो वहं स्वतंत्र द्रव्य नहीं होता । जगत् में पुद्गल पदार्थ अनंत है तथा उन सबके नाम, आकृति आदि भी भिन्न-भिन्न है परंतु उन सबमें पुद्गल के ही गुण पाये जाते हैं । उनसे अन्य कोई गुण उनमें नहीं होने से हम उसे किसी स्वतंत्र द्रव्य के अस्तित्व के रूप में स्वीकार नहीं कर सकते । जीव राशि में भी अनंत जीव हैं । सभी की पर्यायें (मनुष्य, तिर्यंचादि) भिन्न-भिन्न है तथापि उनमें चेतना तथा उपयोग लक्षण एक समान ही है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय तथा काल, ये एक तथा अखंड द्रव्य हैं, अतः द्रव्य छह ही है।
पुण्य तत्त्व का विवेचन ४६९) पुण्य किसे कहते है ? उत्तर : जो आत्मा को पवित्र करें, जिसकी शुभ प्रकृति हो, जिसका परिणाम
मधुर हो, जो सुख-संपदा प्रदान करें, उसे पुण्य कहते है। ४७०) पुण्य बन्ध के कितने कारण हैं ? ।
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श्री नवतत्त्व प्रकरण