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के अंतिम समय तक का चारित्र यावत्कथिक सामायिक कहलाता है । ८४२) छेदोपस्थापनीय चारित्र किसे कहते हैं ?
उत्तर : पूर्व चारित्र पर्याय का छेद करके पुनः महाव्रतों का आरोपण जिसमें किया जाता है, उसे छेदोपस्थापनीय चारित्र कहते हैं ।
८४३) छेदोपस्थापनीय चारित्र के कितने भेद हैं ?
उत्तर : दो (१) निरतिचार छेदोपस्थापनीय चारित्र, (२) सातिचार छेदोपस्थापनीय चारित्र ।
८४४) निरतिचार छेदोपस्थापनीय चारित्र किसे कहते हैं ?
उत्तर : छोटी दीक्षावाले मुनि को एवं एक तीर्थंकर के शासन से दूसरे तीर्थंकर के शासन में जानेवाले साधुओं में जो महाव्रतों का उपस्थान किया जाता है, उसे निरतिचार छेदोपस्थापनीय चारित्र कहते हैं ।
८४५) सातिचार छेदोपस्थापनीय चारित्र किसे कहते हैं ?
उत्तर : मूल गुणों का घात करनेवाले साधु के पूर्व पर्याय का छेद कर जो पुनः महाव्रतों का आरोपण कराया जाता है, उसे सातिचार छेदोपस्थापनीय चारित्र कहते हैं ।
८४६ ) परिहार विशुद्धि चारित्र किसे कहते हैं ?
उत्तर : परिहार - त्याग या तपश्चर्या विशेष । जिस चारित्र में तप विशेष से कर्म निर्जरा रुप शुद्धि होती है, उसे परिहार विशुद्धि चारित्र कहते हैं ।
८४७ ) परिहार विशुद्धि चारित्र का स्वरुप क्या है ?
उत्तर : स्थविरकल्पी मुनियों के गच्छ में से गुरु की आज्ञा लेकर ९ साधु गच्छ से अलग होकर केवली भगवान, गणधरादि अथवा जिन्होंने पूर्व में परिहार कल्प अंगीकार किया हो, उनके पास जाकर यह चारित्र स्वीकार करते है। नौ साधुओं के समूह में ४ निर्विश्यमानक - उपवास करनेवाले, ४ अनुचारक - सेवा करनेवाले, १ वाचनाचार्य आज्ञा देनेवाले होते हैं । तपस्वी उपवास के पारणे में आयंबिल करते हैं । वैयावच्च करनेवाले व वाचनाचार्य हररोज आयंबिल करते हैं । इसप्रकार ६ माह बीतने पर सेवा करने वाले तप करते हैं व तप करने वाले सेवा
श्री नवतत्त्व प्रकरण
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