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वहीं के अनन्तानन्त कर्म योग्य पुद्गल जीव के प्रत्येक प्रदेश के साथ
बंध (चिपक) जाते हैं। १०५१) वे आपस में किस तरह मिलते हैं ? उत्तर : जीव तथा कर्म नीरक्षीरवत्; लोहपिण्डाग्निवत् एकमेक हो जाते हैं । १०५२) आत्मा का कर्म के साथ सम्बन्ध अनादि है, तब उसका अन्त कैसे
संभव है ? उत्तर : अनादि का अन्त नहीं होता, यह सामुदायिक नियम है, जो जाति से
सम्बन्ध रखता है । व्यक्ति विशेष पर यह नियम लागू नहीं भी होता । स्वर्ण-मिट्टी का, घृत-दूधका सम्बन्ध अनादि है, तथापि वे पृथकपृथक होते हैं। वैसे ही आत्मा और कर्म के अनादि सम्बन्ध का अन्त होता है। यह ज्ञातव्य है कि व्यक्ति रूप से कोई भी कर्म अनादि नहीं है। किसी एक कर्म विशेष का अनादिकाल से आत्मा के साथ सम्बन्ध नहीं है । पूर्वबद्ध कर्म स्थिति पूर्ण होने पर आत्मा से पृथक् होकर निर्जरित हो जाते हैं व नवीन कर्म का बन्धन होता रहता है। इस प्रकार प्रवाह रूप से आत्मा के साथ कर्मों का सम्बन्ध अनादिकाल से है,
न कि व्यक्तिशः । १०५३) आत्मा और कर्म, इन दोनों में अधिक शक्ति सम्पन्न कौन ? उत्तर : आत्मा भी बलवान् है और कर्म भी बलवान् है। आत्मा में अनन्त शक्ति
है और कर्म में भी अनन्त शक्ति है। कभी जीव, काल आदि लब्धियों की अनुकूलता होने पर कर्मों को पछाड देता है तो कभी कर्मों की बहुलता होने पर जीव उनसे दब जाता है । बहिर्दृष्टि से कर्म बलवान प्रतीत होते हैं, पर अन्तर्दृष्टि से आत्मा बलवान् है । क्योंकि कर्म का कर्ता आत्मा है । यह मकडी की तरह कर्मों का जाल बिछाकर स्वयं उसमें उलझता है । कर्म चाहे जितने शक्तिशाली हो पर जैसे मुलायम पानी कठोर पत्थर के टुकड़े-टुकड़े कर देता है, चयनों को भी चूरचूर कर देता है, वैसे ही आत्मा भी तप-जप-साधना के प्रचंड पराक्रम द्वारा कर्मों को नष्ट कर मोक्ष को प्राप्त करता है।
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श्री नवतत्त्व प्रकरण