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१०५४) कर्म जड है, फिर उनमें सुखदुःख रुप फल देने की शक्ति कैसे संभव
उत्तर : कर्मपुद्गल यद्यपि यह नही जानते कि यह काम अमुक आत्मा ने किया
है, तो उसे यह फल दिया जाय परन्तु आत्मक्रिया द्वारा जो शुभाशुभ पुद्गल आकृष्ट होते हैं, उनके संयोग से आत्मा की वैसी ही परिणति हो जाती है, जिससे आत्मा को उसके अनुसार फल मिले । शराब को नशा कराने की तथा विष को मारने की ताकत का कब अनुभव होता है । तथापि जड शराब पीने से नशा होता है व विष खाने से मृत्यु । पथ्य भोजन आरोग्य देना नहीं जानता, न दवा रोग मिटाना जानती है। फिर भी पथ्य भोजन से स्वास्थ्य लाभ तथा औषधि सेवन से रोग मिटता ही है । बाह्य रुप से ग्रहण किये गये पुद्गलों का जब इतना असर होता है, तो आन्तरिक प्रवृत्ति से गृहित कर्मपुद्गलों का आत्मा पर असर होने में सन्देह कैसा? उचित साधनों के सहयोग से विष और औषधि की शक्ति में परिवर्तन किया जा सकता है, वैसे ही तप-जपादि के द्वारा कर्म की फल देने की शक्ति में भी परिवर्तन संभव है । अधिक स्थिति एवं तीव्र फल देनेवाले कर्म में भी उनकी स्थिति और फल
देने की शक्ति में अपवर्तना के द्वारा न्यूनता की जा सकती है। १०५५) आत्मा के प्रदेश कितने है एवं शरीर में वे कहाँ हैं ? उत्तर : आत्मा के असंख्यात प्रदेश हैं । वें सारे शरीर में व्याप्त हैं। १०५६) कर्म से आत्मा को क्या हानि है ? उत्तर : कर्मों से आत्मशक्ति बंदी बनकर रह जाती है । उसका परमात्म स्वरुप प्रकट नहीं हो पाता है।
कर्म तत्त्व की प्रकृतियों का विवेचन १०५७) कर्म की प्रकृतियाँ कितनी हैं ? उत्तर : दो - मूलप्रकृति तथा उत्तरप्रकृति । १०५८) मूल प्रकृति किसे कहते हैं ? उत्तर : कर्मों के मुख्य भेदों को मूल प्रकृति कहते हैं। श्री नवतत्त्व प्रकरण
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