Book Title: Navtattva Prakaran
Author(s): Nilanjanashreeji
Publisher: Ratanmalashree Prakashan

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Page 351
________________ स्थिति एवं रस में वृद्धि हो जाना, उद्वर्तना कहलाता है। १०७९) अपवर्तना किसे कहते हैं ? उत्तर : यह अवस्था उद्वर्तना से एकदम विपरीत है। बद्ध कर्मों की स्थिति तथा अनुभाग को कालान्तर में नूतन कर्मबन्ध करते समय न्यून कर देना अपवर्तना है। १०८०) उद्वर्तना - अपवर्तना को विस्तृत रुप से स्पष्ट करो ? । उत्तर : उद्वर्तना तथा अपवर्तना, इन दोनों की उपरोक्त परिभाषा से यह स्पष्ट होता है कि आबद्ध कर्म की स्थिति और इसका अनुभाग एकान्ततः नियत नहीं है। उसमें अध्यवसायों की प्रबलता से परिवर्तन भी हो सकता है। कभी-कभी ऐसा होता है कि प्राणी अशुभ कर्म का बंध करके शुभ कार्य में प्रवृत्त हो जाता है । उसका प्रभाव पूर्वबद्ध अशुभ कर्मों पर पड़ता है, जिससे उस लम्बी काल मर्यादा और विपाक शक्ति में न्यूनता हो जाती है। पूर्वश्रेष्ठ कार्य करके पश्चात् निकृष्ट कार्य करने से पूर्वबन्ध पुण्य कर्म की स्थिति एवं अनुभाग में मन्दता आ जाती है। सारांश यह है कि संसार को घटाने-बढाने का आधार पूर्वकृत कर्म की अपेक्षा वर्तमान अध्यवसायों पर विशेष आद्धृत है। १०८१) संक्रमण किसे कहते हैं ? उत्तर : एक प्रकार के कर्म परमाणुओं की स्थिति आदि का दूसरे प्रकार के कर्म परमाणुओं की स्थिति आदि में परिवर्तित हो जाने की प्रक्रिया का नाम संक्रमण हैं । यह संक्रमण किसी एक मूलप्रकृति की उत्तर प्रकृतियों में ही होता है । विभिन्न मूल प्रकृतियों में नहीं । अर्थात् सजातीय प्रकृतियों में ही होता है, विजातीय में नहीं । इस सजातीय संक्रमण में भी कुछ अपवाद है, जैसे आयुकर्म की नरकायु आदि चारों प्रकृतियों का अन्य आयुओं में परस्पर संक्रमण नहीं होता और न दर्शन मोहनीय तथा चारित्र मोहनीय में । १०८२) उपशमन किसे कहते हैं ? । उत्तर : कर्म के विद्यमान रहते हुए भी उन्हें उदय में आने के लिये अक्षम बना देना उपशमन है । अर्थात् कर्म की वह अवस्था, जिसमें उदय अथवा ३४८ श्री नवतत्त्व प्रकरण

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