Book Title: Navtattva Prakaran
Author(s): Nilanjanashreeji
Publisher: Ratanmalashree Prakashan

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Page 344
________________ उत्तर : किस कषाय द्वारा | पुण्य प्रकृति का पाप प्रकृति का १) अनन्तानुबन्धी द्वारा | द्विस्थानिक रसबन्ध | चतुःस्थानिक रसबन्ध २) अप्रत्याख्यानीय द्वारा | त्रिस्थानिक रसबन्ध | त्रिस्थानिक रसबन्ध ३) प्रत्याख्यानीय द्वारा | चतुः स्थानिक रसबन्ध | द्विस्थानिक रसबन्ध ४) संज्वलन द्वारा चतुः स्थानिक रसबन्ध | एक स्थानिक रसबन्ध शुभ प्रकृति का एकस्थानिक रसबन्ध होता ही नहीं है, अशुभ में भी मति आदि ४ ज्ञानावरणीय, ३ दर्शनावरणीय, संज्वलनचतुष्क, पुरुषवेद ५ अंतराय, इन १७ प्रकृतियों का एकस्थानिक रसबन्ध ९वें गुणस्थान में होता है। शेष अशुभ प्रकृतियों का रसबन्ध जघन्य से द्विस्थानिक होता है। १०४८) जीव (आत्मा) अमूर्त है तथा कर्म मूर्त है । फिर इन दो विरोधी तत्त्वों का सम्बन्ध कैसे हो सकता है ? उत्तर : अमूर्त आत्मा के साथ मूर्त कर्म का बन्ध असंभव है परंतु संसारी आत्मा कार्मण शरीर के सम्बन्ध से मूर्तवत् होती है । वह कार्मण शरीर प्रवाह रुप से अनादि सम्बन्धवाला है। उस कार्मण शरीर की विद्यमानता में ही आत्मा से कर्म पुद्गल चिपकते हैं । जब कार्मण शरीर का नाश हो जाता है, तब आत्मा अमूर्त हो जाती है । उस आत्मा से कर्म का सम्बन्ध नहीं होता। १०४९) जीव तथा कर्म का सम्बन्ध कब से है ? उत्तर : जीव व कर्म का अनादि काल से सम्बन्ध है । प्रत्येक समय पुराने कर्म अपना फल देकर आत्मा से अलग होते रहते हैं और नवीन कर्म प्रतिसमय बंधते रहते हैं। १०५०) आत्मा में कर्म किस तरह आकर चिपकते हैं ? । उत्तर : शरीर पर तेल लगाकर कोई धूल में बैठ जाय तब धूल जैसे उसके शरीर पर चिपक जाती है, ठीक उसी प्रकार मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय तथा योग से जीव के प्रदेशों में एक प्रकार का परिस्पंदन (हलचल) होता है, तब जिस आकाश प्रदेश में आत्मा के प्रदेश है, -------------- श्री नवतत्त्व प्रकरण ३४१

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