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को प्राप्त करे । यही इस निर्जरा तत्त्व का उद्देश्य है । बंध तत्त्व का विवेचन
१०१४) बंध किसे कहते हैं ?
उत्तर : कर्म पुद्गलों तथा आत्मा का परस्पर नीर-क्षीरवत् सम्बन्ध बन्ध कहलाता है अथवा शुभाशुभ योगों तथा कषाय आदि परिणामों द्वारा कर्मवर्गणाओं का आत्मप्रदेशों से दूध-शक्कर के समान एकमेक हो जाना, बन्ध है ।
१०१५) बंध के कितने भेद हैं ?
उत्तर : चार - (१) प्रकृतिबंध, (२) स्थितिबंध, (३) रसबंध (अनुभाग बंध), (४) प्रदेशबंध ।
१०१६) प्रकृतिबंध किसे कहते हैं ?
उत्तर : प्रकृति अर्थात् स्वभाव । जीव द्वारा ग्रहण किये गए कर्मपुद्गलों में अच्छे-बुरे विभिन्न स्वभावों का उत्पन्न होना, प्रकृतिबंध है ।
१०१७) स्थितिबंध किसे कहते हैं ?
उत्तर : स्थिति – कालावधि । आत्मप्रदेशों पर आये हुए कर्मों की वहाँ रहने
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की कालावधि स्थिति बंध है अथवा जीव द्वारा ग्रहण किये हुए कर्म पुद्गलों का अपने स्वभाव को न छोडते हुए अमुक काल तक जीव के साथ लगे रहने की कालमर्यादा स्थिति बंध है ।
१०१८) अनुभाग (रस) बंध किसे कहते हैं ?
उत्तर : जीव के द्वारा ग्रहण किये हुए कर्मपुद्गलों में फल देने की न्यूनाधिक शक्ति को अनुभाग बन्ध कहते हैं ।
१०१९) प्रदेशबंध किसे कहते हैं ?
उत्तर : जीव के साथ न्यूनाधिक परमाणुवाले कर्म - स्कंधों का सम्बन्ध होना प्रदेश बंध है ।
१०२०) आठ कर्मों का बन्ध कितने प्रकार से होता है ?
उत्तर : चारों प्रकार से ।
१०२१) बंध के चारों भेदों को मोदक के रुपक से स्पष्ट करो ।
श्री नवतत्त्व प्रकरण
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