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कहलाता है। ९२१) कायक्लेश तप के भेद किस सूत्र में कहे गये हैं ? उत्तर : कायक्लेश तप के भेद स्थानांग तथा औपपातिक सूत्र में कहे गये हैं। ९२२) कायक्लेश तप के कितने भेद हैं ? उत्तर : १६ भेद हैं - (१) ठाणाट्ठितिए - कायोत्सर्ग करके खडे रहना । (२)
ठाणाइए - एक स्थान पर बैठे रहना । (३) उक्कुडुयासणिए - उत्कटितासन करना । उक्कडु बैठना - दोनों घुटनों में सिर झुकाकर कायोत्सर्ग करना । (४) पडिमट्ठाई - प्रतिमा की भाँति स्थिर रहना, पद्मासन लगाना । (५) वीरासणिए - वीरासन करना । सिंहासन या कुर्सी पर बैठे व्यक्ति के नीचे से कुर्सी निकाल देने पर जो मुद्रा बनती है, वह वीरासन है। (६) नेसज्जिए - दोनों कुल्हों के बल भूमि पर बैठना अथवा भूमि पर किसी भी आसन में बैठना निषद्या है । (७) दण्डायए - दण्डासन करना । लम्बे दण्ड की तरह लेटकर कायोत्सर्ग करना । (८) लगंडसाइ - टेढी लकडी की तरह कायोत्सर्ग करना । लकडासन / लंगुष्ठशायी आसन करना । (९) आयावए - आतापक | धूप आदि की आतापना लेना । (१०) अवाउडए - अप्रावृतक - वस्त्ररहित होकर शीत आदि की वेदना सहना अथवा खुले मैदान या स्थल पर बैठकर धूप / शीत आदि की वेदना सहना । (११) अकंडाएअकुंडयन - कायोत्सर्ग में खुजली न खुजलाना । (१२) अणिठ्ठहए - अनिष्ठुवत - कायोत्सर्ग में थूक न थूकना । (१३) सव्वगयपरिकम्म - शरीर के अंगोपांगों पर ममत्व न रखना । (१४) विभूषविप्पमुक्के - विभूषा / श्रृंगार का त्याग करना । (१५) लोयईपरिसह - केशलुंचन
करना । (१६) चरिया - चर्या । विहार करना । ९२३) प्रतिसंलीनता तप किसे कहते हैं ? उत्तर : प्रतिसंलीनता - संकोचन या गोपन करना । अशुभ मार्ग में प्रवर्तन करती
हुई इन्द्रियों का योग आदि के द्वारा संवरण करना प्रतिसंलीनता तप
कहलाता है। ९२४) प्रतिसंलीनता तप के कितने भेद हैं ? श्री नवतत्त्व प्रकरण
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