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अप्रत्याख्यानीय कषाय कहते है। इस कषाय के उदय से जीव को किसी प्रकार के व्रत, प्रत्याख्यान, नियम आदि धारण करने की इच्छा नहीं होती है । अप्रत्याख्यानीय कषायी आत्मा देव आयुष्य या मनुष्य आयुष्य का बंध करती है। १. अप्रत्याख्यानीय क्रोध : पृथ्वी में आई हुई दरार जिस प्रकार पानी के संयोग से फिर भर जाती है, उसी प्रकार अप्रत्याख्यानीय क्रोध की आग विशेष परिश्रम तथा उपाय के द्वारा मिट जाती है। २. अप्रत्याख्यानीय मान : जिस प्रकार हड्डी को नमाने के लिये कठिन परिश्रम करना पडता है, ठीक उसी प्रकार यह मान अत्यंत मेहनत व पुरुषार्थ से दूर होता है। ३. अप्रत्याख्यानीय माया : भेड के सींग की वक्रता महाप्रयत्न से दूर होती है, उसी प्रकार इस प्रकार की माया वाली आत्मा अति परिश्रम से सरल परिणाम को प्राप्त होती है। .. ४. अप्रत्याख्यानीय लोभ : गाडी के पहिये के कीचड के समान यह
लोभ अति कठिनता से दूर होता है । ६०८) प्रत्याख्यानीय कषाय चतुष्क का वर्णन कीजिए। उत्तर : जिसके उदय से जीव को सर्वविरति चारित्र की प्राप्ति नहीं होती, उसे
प्रत्याख्यानीय कषाय कहते है। इस कषाय का काल एक पक्ष से चार माह तक का है। प्रत्याख्यानीय कषाय वाली आत्मा केवल देवआयुष्य का ही बंध करती है। १. प्रत्याख्यानीय क्रोध : यह क्रोध रेत या बालु में पडी हुई रेखा के समान है, जो हवा के चलने पर कुछ समय में मिट जाती है । यह क्रोध भी कुछ समय में शांत हो जाता है। २. प्रत्याख्यानीय मान : जैसे लकडी को नमाने के लिये तैल मालिश आदि करना पडता है, उसी प्रकार यह मान थोडे परिश्रम से नम्रता में परिणत हो जाता है। ३. प्रत्याख्यानीय माया : गोमूत्रिका के समान यह माया कुटिल
परिणामवाली होती है, जो कुछ श्रम से दूर होती है। २६२
श्री नवतत्त्व प्रकरण