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परीषह होते हैं। जघन्य से पूर्वोक्त चार में से अविरोधी दो परीषह होते हैं । तत्त्वार्थ सूत्रकार ने उत्कृष्ट से एक जीव में एकसाथ एक से लेकर १९ परीषहों का उदय कहा है । वह इस अपेक्षा से कि शीत व उष्ण तथा चर्या, शय्या तथा निषद्या इनमें पहले दो व पिछले तीन एक साथ संभव नहीं है। शीत होगा तब उष्ण नहीं होगा और उष्ण होगा, तब शीत संभव नहीं है । इसी तरह चर्या, शय्या और निषद्या, इन तीनों में से भी एक समय में एक ही हो सकता है। अतः उक्त पांचो में से एक समय में किन्हीं दो का संभव तथा तीन का असंभव मानकर एक आत्मा में एक साथ अधिक से अधिक १९ परीषह ही संभव है । ८०२) अनुकूल परीषह किसे कहते हैं ?
उत्तर : जिससे आत्मा को सुख का अनुभव हो, वे अनुकूल परीषह कहलाते हैं । स्त्री, प्रज्ञा तथा सत्कार ये तीन अनुकूल परीषह है ।
८०३ ) प्रतिकूल परीषह किसे कहते हैं ?
उत्तर : जिससे आत्मा को दुःख या कष्ट का अनुभव हो, वे प्रतिकूल परीषह है । अनुकूल तीन परीषहों को छोडकर शेष १९ परीषह प्रतिकूल है । ८०४) परीषहों के उदय में कितने व कौन कौन से कर्म कारण रुप हैं ? उत्तर : परीषहों के उदय में ४ कर्म कारण रूप हैं - (१) ज्ञानावरणीय, (२) वेदनीय, (३) मोहनीय, (४) अंतराय ।
८०५) किस गुण स्थान में कौन-कौन से परीषह होते हैं ?
उत्तर : ६ठे से ९ वे गुणस्थान तक में २२ परीषह होते है, १० वें, ११ वें तथा १२ वें में क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंश, चर्या, प्रज्ञा, अज्ञान, अलाभ, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श, मल, ये १४ परीषह होते हैं । शेष मोहजन्य ८ परीषह नहीं होते । १३वे तथा १४ वे में अशातावेदनीय से होनेवाले ११ परीषह ही होते हैं। इसे कोष्टक में देखें ।
८०६ ) किस कर्म के उदय से किस गुणस्थानक में कितने व कौन से परीषह उदय में आते हैं, स्पष्ट करें ?
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श्री नवतत्त्व प्रकरण