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भावना है। ८२९) अशुचित्व भावना किसे कहते हैं ? उत्तर : यह शरीर औदारिक शरीर है, जिसका निर्माण रज और वीर्य के संयोग
से हुआ है। इसमें से सदा अशुचि बहती रहती है। सुगंधित व स्वादिष्ट पदार्थ भी इसके संग से दुर्गंधित मलरुप हो जाता है । उपर से सुन्दर दिखाई देनेवाला यह शरीर केवल मांस पिंड है। किन्तु हे जीव ! तृ
शुद्ध एवं पवित्र है । इस प्रकार की अनुप्रेक्षा अशुचि भावना है। ८३०) आश्रव भावना किसे कहते हैं ? उत्तर : आत्मा में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय तथा अशुभ योग रुप
आश्रव द्वारों से निरन्तर नूतन कर्मों का आगमन होता रहता है । इसी कर्मबन्ध के कारण आत्मा के जन्म-मरण का चक्र चलता रहता है,
इस प्रकार का चिन्तन करना, आश्रव भावना है। ८३१) संवर भावना किसे कहते हैं ? उत्तर : आश्रव मार्ग को रोकना ही संवर है अर्थात् संवृत आत्मा अशुभ कर्मों
से संतप्त नहीं होता । संवर क्रियाओं का आचरण करता हुआ जीव सिद्ध पद का अधिकारी होता है, इस प्रकार का चिंतन करना संवर
भावना है। ८३२) निर्जरा भावना किसे कहते हैं ? उत्तर : आत्मप्रदेशों से कर्माणुओं के एक-एक भाग का पृथक् होना, कर्मों का
जीर्ण होकर निर्जरण हो जाना, निर्जरा है। बिना निर्जरा के जीव कर्म सम्बन्ध से मुक्त नहीं होता । निर्जरा ही विशिष्ट ज्ञान एवं आत्मशुद्धि
का मुख्य साधन है, ऐसा चिन्तन करना निर्जरा भावना है। ८३३) लोक स्वभाव भावना किसे कहते हैं ? उत्तर : लोक क्या है ? उसकी आकृति कैसी है ? आदि विचार करना
लोकस्वभाव भावना है। दोनों हाथ कमर पर रखकर तथा दोनों पाँव फैलाकर खडे हुए पुरुष की आकृति जैसा लोक है। इसमें जीव, धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल तथा काल द्रव्य अवस्थित है। यह लोक द्रव्य
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श्री नवतत्व प्रकरण