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४. स्पर्श के १८४ भेद : ८ स्पर्श में से प्रत्येक स्पर्श में ५ वर्ण, २ गंध, ५ रस, ६ स्पर्श (आठ स्पर्श में एक स्वयं व एक विरोधी स्पर्श को छोडकर) और ५ संस्थान, कुल इन २३ भेदों को ८ स्पर्श से गुणा करने पर २३ x ८ = १८४ । ५. संस्थान के १०० भेद : परिमंडल, आयत, वृत्त, व्यस्त्र व चतुरस्त्र, इन पांच संस्थानों के ५ वर्ण, २ गंध, ५ रस, ८ स्पर्श होते हैं । इन २० भेदों को ५ संस्थान से गणा करने पर २० x ५ = १०० ।
| वर्ण | गंध | रस | स्पर्श | संस्थान कुल
| १०० । ४६ । १०० - १८४ | १०० | ५३० अरूपी अजीव के ३० भेद : १. धर्मास्तिकाय, २. अधर्मास्तिकाय, ३. आकाशास्तिकाय तथा ४. काल, इन चार द्रव्यों के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव तथा गुण, प्रत्येक के ये पांच-पांच भेद करने पर ४ x ५ = २० भेद होते हैं । धर्मास्तिकाय के ३ : स्कंध, देश, प्रदेश । अधर्मास्तिकाय के ३ : स्कंध, देश, प्रदेश । आकाशास्तिकाय के ३ : स्कंध, देश, प्रदेश । काल का एक भेद – ये कुल १० भेद । तथा उपरोक्त २० भेद । इस प्रकार अरूपी अजीव के ३० भेद होते हैं ।
५३० + ३० = ५६० भेद अजीव तत्त्व के कहे गये हैं। ४६७) अजीव तत्त्व को जानने का क्या उद्देश्य है ? . उत्तर : अजीव तत्त्व को जानने से जीव को लोक व अलोक के स्वरूप का
ज्ञान होता है। लोक में रहे कुछ द्रव्य किस प्रकार हम पर उपकार करते हैं, यह ज्ञान अध्ययन से होता है । अजीव तत्त्वों में सबसे मुख्य है पुद्गल । इस पुद्गल से आत्मा का अनादिकाल से संबंध है। क्योंकि जीव (आत्मा) अनादिकाल से शरीर से सम्बद्ध है। शरीर, कर्म, इन्द्रियाँ सब कुछ पुद्गल की ही परिणति है । इन पुद्गलों में अनुरक्त तथा
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