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उत्तर : जिस कर्म के उदय से जीव तीन जगत का पूज्य बनकर तीर्थंकरत्व
को प्राप्त करता है, अष्ट महाप्रातिहार्यादि से युक्त बनकर धर्मसंघ की
स्थापना करता है, उसे तीर्थंकर नामकर्म कहते है। ५३८) नरकगति में पुण्य के कितने भेद होते हैं ? उत्तर : नरकगति में पुण्य प्रकृति के २० भेद होते है -
१. शाता वेदनीय, २. पंचेन्द्रिय जाति, ३. वैक्रिय शरीर, ४. तैजस शरीर, ५. कार्मण शरीर, ६. वैक्रिय अंगोपांग, ७-१०. शुभवर्ण चतुष्क, ११. पराघात, १२. उच्छ्वास, १३. अगुरुलघु, १४. निर्माण, १५. त्रस, १६.
बादर, १७. पर्याप्त, १८. प्रत्येक, १९. स्थिर, २०. शुभ । ५३९) तिर्यंच गति में पुण्य प्रकृति के कितने भेद होते हैं ? उत्तर : तिर्यंच गति में पुण्य प्रकृति के ३२ भेद होते हैं -
१. शाता वेदनीय, २. तिर्यंच आयुष्य, ३. पंचेन्द्रिय जाति, ४-७. औदारिक, वैक्रिय, तैजस, कार्मण शरीर, ८-९. औदारिक तथा वैक्रिय अंगोपांग, १०. वज्रऋषभनाराच संघयण, ११. समचतुरस्र संस्थान, १२१५. शुभवर्ण चतुष्क, १६. शुभ विहायोगति, १७. पराघात, १८. उच्छास, १९. आतप, २०. उद्योत, २१. अगुरुलघु, २२. निर्माण, २३. त्रस, २४. बादर, २५. पर्याप्त, २६. प्रत्येक, २७. स्थिर, २८. शुभ, २९. सुभग,
३०. सुस्वर, ३१. आदेय, ३२. यश । ५४०) मनुष्य गति में पुण्य प्रकृतियों के कितने भेद संभवित है ? उत्तर : मनुष्य गति में पुण्य प्रकृतियों के ३७ भेद संभवित है।
१. शातावेदनीय, २. उच्चगोत्र, ३. पंचेन्द्रिय जाति, ४-६. मनुष्यत्रिक (मनुष्य-गति-आनुपूर्वी-आयुष्य), ७-११. औदारिक आदि ५ शरीर, १२-१४. ३ अंगोपांग, १५. वज्रऋषभनाराच संघयण, १६. समचतुरस्त्र संस्थान, १७-२०. शुभवर्ण चतुष्क, २१. शुभविहायोमति, २२. पराघात, २३. उच्छ्वास, २४. उद्योत, २५. अगुरुलघु, २६. जिननाम, २७. निर्माण,
२८-३७. त्रसदशक। ५४१) देवगति में कितनी पुण्य प्रकृतियाँ होती हैं ?
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श्री नवतत्त्व प्रकरण