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कर्मजन्य है । नाव और नाविक की तरह आत्मा का पुण्य से संबंध होता है परंतु गन्तव्य स्थान पर पहुँचने के बाद उस नाविक रूपी आत्मा को नावरूपी पुम्य को छोड़ना ही पड़ता है तभी वह गन्तव्य तक पहुंचता है। आज पुण्य तत्त्व संसार में रहने के कारण उपादेय है क्योंकि संसार की विषमताओं से उबारने के लिए ही यह नाव रूप है परंतु जब संसार छूट जायेगा तब पुण्य तत्त्व की भी कोई आवश्यकता नहीं होगी। परंतु सर्व जीवों के प्रति मैत्रीवत् दृष्टि से देखने के लिए देव-गुरु और धर्म की रक्षा करने के लिए पुण्य तत्त्व का उपयोग करना चाहिए । अतः पुण्य तत्त्व को जानने का उद्देश्य जैन दर्शन की प्राप्ति कर स्व-पर कल्याण करना ही हो ।
पाप तत्त्व का विवेचन ५४८) पाप किसे कहते है ? उत्तर : जो आत्मा को मलिन करे, जो बांधते समय सुखकारी किंतु भोगते समय
दुःखकारी हो, उसे पाप कहते है । ५४९) पाप बंध के कितने कारण हैं ? उत्तर : पाप बंध के १८ कारण हैं - १. प्राणातिपात, २. मृषावाद, ३.
अदत्तादान, ४. मैथुन, ५. परिग्रह, ६. क्रोध, ७. मान, ८. माया, ९. लोभ, १०. राग, ११. द्वेष, १२. कलह, १३. अभ्याख्यान, १४. पैशुन्य, १५.
रति-अरति, १६. परपरिवाद, १७. मायामृषावाद, १८. मिथ्यात्व शल्य। ५५०) प्राणातिपात किसे कहते है ? । उत्तर : जीव के प्राणों को नष्ट करना, प्राणातिपात कहलाता है। ५५१) मृषावाद किसे कहते है ? उत्तर : असत्य या झूठ बोलना, मृषावाद कहलाता है। ५५२) अदत्तादान किसे कहते है ? उत्तर : ग्राम, नगर, खेत आदि में रही हुई सचित्त या अचित्त वस्तु को मालिक
__की आज्ञा के बिना ग्रहण करना, चोरी करना, अदत्तादान कहलाता है। ५५३) मैथुन किसे कहते है ?
श्री नवतत्त्व प्रकरण
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