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शब्दार्थ पयइ - प्रकृति
अणुभागो - अनुभाग सहावो - स्वभाव
रसो - रस वुत्तो - कहा है
णेओ - जानना ठिs - स्थिति
पएसो - प्रदेश कालावहारणं - काल का निश्चय | दलसंचओ - दलों का समूह है।
भावार्थ प्रकृति स्वभाव है । काल का अवधारण (निश्चय) स्थिति है । अनुभाग रस है तथा दलों का समूह प्रदेश है ॥३७॥
विशेष विवेचन ३४वीं माथा में बंध तत्त्व के जिन ४ भेदों का नामोल्लेख किया गया था, प्रस्तुत गाथा में उन्हीं ४ भेदों के स्वरूप का विवेचन है।
नबंध : जीवात्मा का मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय तथा योग के निमित्त से कर्म पुद्गलों को ग्रहण कर नीर-क्षीरवत् आत्मप्रदेशों के साथ परस्पर संबंध होना, बंध कहलाता है।
१. प्रकृतिबंध : ८ कर्मों के स्वभाव को प्रकृति बंध कहते है । जैसे कोई कर्म आत्मा के ज्ञान गुण को आवृत्त करता है, तो कोई दर्शन गुण को । एक मोदक के दृष्टान्त से भी हम इन चारों बंध के स्वरुप को समझ सकते हैं । जैसे कोई लडडू पित्त को दूर करता है तो कोई कफ का शमन करता है। उसी प्रकार ८ कर्म के बन्धकाल में एक समय में कर्म के जो भिन्न-भिन्न स्वभाव नियत होते हैं, उसे प्रकृति बंध कहते हैं ।
२. स्थिति बंध : आठ कर्मों की स्थिति निश्चित होना, स्थिति बंध कहलाता है । जिस समय कर्म का बन्ध होता है, उसी समय 'यह कर्म इतने काल तक आत्म प्रदेशों के साथ रहेगा' ऐसा निर्धारण भी हो जाता है । जैसे कोई लड्डू एक मास तक ठीक रहता है, तो कोई १५ दिन के बाद विकृत होता है। ठीक वैसे ही कोई कर्म २० कोडाकोडी सागरोपम तो कोई ३३ सागरोपम तक जीव के साथ स्व-स्वरुप में कायम रहता है।
- - - - श्री नवतत्त्व प्रकरण
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