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ही रहता । गति ही करता रहता । अधर्मास्तिकाय के कारण ही स्थिति
संभव है। ३४७) गति-शक्ति धर्मास्तिकाय में विद्यमान है या जीव और पुद्गल में ? उत्तर : गति-शक्ति जीव और पुद्गल में है, धर्मास्तिकाय में नहीं । धर्मास्तिकाय
केवल जीव और पुद्गल के हलन-चलन में उदासीन भाव से सहायक है । जैसे लंगडे व्यक्ति के लिये लाठी । जिस प्रकार स्वयं चलने में समर्थ लंगडे को लाठी केवल सहारा देती है। वह लंगडे को गति करने में न तो प्रेरणा देती है, न कर्ता बनती है । ठीक उसी प्रकार पुद्गल तथा जीव के गमनागमन में धर्मास्तिकाय सहकारी कारण है। पुद्गल तथा जीव की तीनों ही काल में गमन क्रिया विद्यमान रहती है अतः वह त्रिकालवर्ती अर्थात् अनादि-अनंत है । जीव तथा पुद्गल संपूर्ण
लोक में गति करते हैं, अतः धर्मास्तिकाय सकल लोकव्यापी है । ३४८) अधर्मास्तिकाय जीव तथा पुद्गल के स्थिर रहने में ही सहायक होता है
अथवा स्वभावतः स्थिर रहने वाले पदार्थों का सहायक होता है ? उत्तर : अधर्मास्तिकाय स्वभावतः स्थिर रहने वाले पदार्थों के स्थिर रहने में नहीं
बल्कि गतिशील पदार्थों के स्थिर रहने में सहायक होता है । जो स्वभावतः स्थिर है, उन्हें सहायता की कोई आवश्यकता नहीं । सहायता की जरूरत उन्हीं पदार्थों को होती है, जो सदा स्थिर नहीं होते । स्थिर रहने में उपादान कारण स्वयं पदार्थ ही है, अधर्मास्तिकाय केवल उदासीन भाव से सहायक है। यह सकल लोकव्यापी है । अलोक
में इसका अभाव है क्योंकि वहाँ पुद्गल और जीव नहीं है। ३४९) गतिशील द्रव्य कितने हैं तथा स्थिर द्रव्य कितने हैं ? उत्तर : जीव और पुद्गल में ही गति है । इनके अलावा सभी द्रव्य स्थिर
है । जीव व पुद्गल में भी निरन्तर गति नहीं होती । वे कभी गति
करते हैं, तो कभी स्थिर रहते हैं । ३५०) आकाशास्तिकाय की क्या उपयोगिता है ? उत्तर : आकाश द्रव्य समस्त द्रव्यों का आधार है, बाकी सब द्रव्य आधेय है।
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- - - - - - श्री नवतत्त्व प्रकरण
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