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है। अनन्त लोक समा जाय, इतना विराट् होने से अलोकाकाश अनंत
प्रदेशी है। ३४३) लोकाकाश व अलोकाकाश का विभाजक तत्व क्या है ? उत्तर : धर्मास्तिकाय तथा अधर्मास्तिकाय लोक-अलोक के विभाजक तत्व है।
ये जिस आकाश खंड में व्याप्त है, वहाँ गति व स्थिति होती है। जहाँ गति व स्थिति है, वहाँ जीव एवं पुद्गल का अस्तित्व है। अतः जीव, पुद्गल, धर्म तथा अधर्म से व्याप्त आकाश खण्ड लोकाकाश है । शेष
आकाश खण्ड अलोकाकाश है। ३४४) आकाशास्तिकाय अमूर्त है, फिर वह नीले रंग वाला क्यों दिखायी देता
उत्तर : नीला रंग आकाश का नहीं है, क्योंकि आकाश अमूर्त है । अमूर्त का
कोई वर्ण नहीं होता । वह जैसा यहाँ है, वैसा ही सर्वत्र है । जो नीला (आसमानी) रंग हमे दृष्टिगत हो रहा है, वह दूर अवस्थित रज कणों का है । रजकण हमारे आसपास भी है पर सामीप्य के कारण नजर नहीं आते हैं । दूरी व सघनता होने पर वे ही रजकण आसमानी वर्ण में दृष्टिगोचर होते है । जैसे एक ऊँचाई पर बादल सघन पिंड के रूप
में श्वेतवर्णी दिखाई देते हैं परंतु निकट जाने पर वैसे प्रतीत नहीं होते । ३४५) धर्मास्तिकाय की हमारे जीवन में क्या उपयोगिता है ? उत्तर : धर्मास्तिकाय जीव और पुद्गल की गति, क्रिया या हलन-चलन में
सहायक तत्त्व है। अगर धर्मास्तिकाय द्रव्य का अभाव हो जाय तो जीव और पुद्गल की गति ही अव्यवस्थित हो जाये । धर्मास्तिकाय के द्वारा ही जीवों के आगमन, गमन, उन्मेष, मनोयोग, वचनयोग तथा काययोग में प्रवृत्ति होती है । इसके अतिरिक्त जितने भी चल भाव
हैं, वे सब धर्मास्तिकाय द्वारा ही प्रवृत्त होते हैं। ३४६) अधर्मास्तिकाय की हमारे जीवन में क्या उपादेयता है ? उत्तर : अगर अधर्मास्तिकाय नहीं होता तो जीव का खडे रहना, बैठना, मन
को एकाग्र करना, मौन करना, निस्पंद होना, करवट बदलना आदि जितने भी स्थिर भाव है, वे संभव नहीं हो पाते । आदमी सदैव चलता
श्री नवतत्त्व प्रकरण
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