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मानव मछलियाँ व जलचरों को पकडकर रेती में दबा देते हैं । सूर्य के प्रचंड ताप से वे दिन में भून जाने पर रात्रि में उन्हें खाते हैं । इस प्रकार ये हिंसक जीव मांसाहारी होते हैं, जो मरकर प्रायः नरक व तिर्यंच
योनि में उत्पन्न होते हैं। ४३५) उत्सर्पिणी काल के स्वरूप का वर्णन करो । उत्तर : १. दुःषम-दुःषम : अवसर्पिणी के छठे आरे की भांति यह आरा इक्कीस
हजार वर्ष का होता है। विशेषता केवल इतनी है कि अवसर्पिणी काल में देह, आयुष्य आदि का उत्तरोत्तर हास होता है, जबकि उत्सर्पिणी में उत्तरोत्तर विकास होता है। २. दुःषम - कालमान २१ हजार वर्ष । इसमें सात-सात दिन तक पांच प्रकार की वृष्टियाँ होती हैं। (१) पुष्कर संवर्तक मेघ - इससे अशुभ भाव, रूक्षता, उष्णता नष्ट होती है। (२) क्षीर मेघ - शुभ वर्ण, गंध, रस, स्पर्श की उत्पत्ति होती है । (३) घृत मेघ - भूमि में स्नेह (स्निग्धता) का प्रादुर्भाव होता है। (४) अमृत मेघ - वृक्ष, गुच्छ, गुल्म, लता आदि के अंकुर प्रस्फुटित होते हैं। (५) रस मेघ - इससे वनस्पतियों में फल, फूल, पत्ते आदि की वृद्धि होती है । पृथ्वी हरी-भरी और रमणीय हो जाती है। बिलवासी बाहर निकलकर आनंद मनाते है । मांसाहार का त्याग व बुद्धि में दया का आविर्भाव होता है । यह अवसर्पिणी के ५ वें आरे जैसा है। ३. दुःषम-सुषम : यह आरा बयालीस हजार वर्ष न्यून एक कोडाकोडी सागरोपम का होता है । अवसर्पिणी के ४थे आरे के समान ही इसे समझना चाहिये। ४. सुषम-दुःषम : इसे अवसर्पिणी के तीसरे आरे के समान समझनां चाहिये। ५. सुषम : इसे अवसर्पिणी के दूसरे आरे के समान समझना चाहिये।
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तत्त्व प्रकरण