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रहे हुए साथ के आकाश प्रदेश में मृत्यु पाये, तत्पश्चात् कुछ काल के बाद वही जीव उसी पंक्ति में नियत आकाश प्रदेश के साथ के तीसरे आकाश प्रदेश में मृत्यु पाये । इस प्रकार बार-बार मृत्यु पाते हुए इस असंख्य आकाश प्रदेश की संपूर्ण श्रेणी पूर्ण करे, पश्चात् उस पंक्ति के साथ में रही हुई दूसरी, तीसरी यावत् आकाश के प्रतर में रही हुई साथ-साथ की असंख्य श्रेणियाँ मृत्यु द्वारा पूर्ण करें और इसी प्रकार यावत् लोकाकाश के असंख्य प्रतर क्रमशः पूर्ण करें । इस प्रकार एक जीव को मृत्यु द्वारा संपूर्ण लोकाकाश को क्रमशः स्पर्श करने में जितना काल लगता है, उस अनंतकाल का नाम सूक्ष्म क्षेत्र पुद्गल परावर्त हैं ।
ऐसे अनन्त पुद्गल परावर्त एक जीव ने व्यतीत किये है और भविष्य में भी करेगा । परन्तु यदि अन्तर्मुहूर्त काल मात्र भी जीव सम्यक्त्व का स्पर्श कर लेता है तो उत्कृष्ट से (सूक्ष्म क्षेत्र पुद्गल परावर्तरूप) उस अनन्तकाल में से आधा अनन्तकाल ही बाकी रह जाता है ।
- सिद्ध के १५ भेद
* गाया जिण अजिण तित्थऽतित्था गिहि अन्न सलिंग थी नर नपुंसा। पत्तेय सयंबुद्धा, बुद्ध बोहिय इक्कणिक्का य ॥५५॥
___ अन्वय जिण अजिण तित्य अतित्था, गिहि अन्न सलिंग थी नर नंपुसा, पत्तेय सयंबुद्धा, बुद्ध बोहिय इक्क य अणिक्का ॥५५॥
• संस्कृन पदानुवाद जिनाजिनतीर्थातीर्था, गृह्यन्यस्वलिङ्गास्त्रीनरनपुंसकाः । प्रत्येक स्वयंबुद्धौ, बुद्धा बोधितैकानेकाश्च ॥५५॥
शब्दार्थ जिण - जिनसिद्ध
अतित्था - अतीर्थ सिद्ध अजिण - अजिनसिद्ध गिहि - गृहस्थलिंग सिद्ध तित्थ - तीर्थ सिद्ध
अन्न - अन्यलिंग सिद्ध ------------- श्री नवतत्त्व प्रकरण