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सत्पद प्ररूपणा द्वार
गाथा संतंसुद्धपयत्ता विज्जंतं, खकुसुम व्व न असंतं । मुक्खत्ति पयं तस्स उ, परूवणा मग्गणाइहिं ॥४४॥
अन्वय
संतं सुद्ध पयत्ता, विज्जंतं ख-कुसुम व्व न असंतं, मुक्खत्ति पयं, उ मग्गणाईहिं तस्स परुवणा ॥४४॥
संस्कृतपदानुवाद सत् शुद्धपदत्वाद्विद्यमानं, ख-कुसुमवत् न असत् । 'मोक्ष' इति पदं तस्य तु, प्ररूपणा मार्गणादिभिः ॥४४॥
शब्दार्थ संतं - सत् (विद्यमान) मुक्ख - मोक्ष सुद्ध - शुद्ध - एक लि - इति, यह पयत्ता - पदरूप होने से प - पद है विज्जंतं - विद्यमान है: तस्स - उसकी ख-कुसुमं - आकाश-पुष्प के | उ:- तथा व्व - समान
परूपणा - प्ररूपणा न - नहीं
पंगणाइहिं - मार्गणाओं के द्वारा असंतं - असत् (अविद्यमान) ।
। भावार्थ 'मोक्ष' सत् है, शुद्ध पद होने से विद्यमान है, आकाश के फूल के समान अविद्यमान नहीं है। 'मोक्ष' इस प्रकार का पद है और मार्गणा आदि द्वारा इसकी विचार-प्ररूपणा होती है ॥४४॥
विशेष विवेचन प्रस्तुत गाथा में अनुयोग के ९ द्वारों में से प्रथम द्वार की विवेचना है।
श्री नवतत्त्व प्रकरण
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