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(४) लोभ से, (५) भय से, (६) हास्य से, (७) अज्ञान से तथा (८) अनाभोग से।
जिनेश्वर परमात्मा में इन सब दोषों का सर्वथा अभाव होने से उनके वचन निर्दोष, सत्य तथा युक्तियुक्त ही होते हैं । जिस जीव के मन में इस प्रकार की अडिग, अडोल, निश्चल और दृढ श्रद्धा है कि जिनेश्वर भगवान ने जीव, कर्म, तत्त्व तथा द्रव्य का जैसा स्वरुप कहा है, वही सत्य है, यथार्थ है, युक्तियुक्त है, निर्विवाद है, वह जीव अवश्यमेव सम्यक्त्वी होता है । अहिंसा, अपरिग्रह, अनेकान्तवाद, नयवाद, निक्षेपवाद, स्याद्वाद का जैसा धर्म वीतराग ने कहा है, वह किसी भी धर्म में नहीं कहा है। जिनेश्वर के कथन परस्पर अविसंवादी तथा अविरोधी है । इस प्रकार का निर्मल किन्तु निश्चल श्रद्धान ही सम्यक्त्व कहलाता है।
सम्यक्त्व का माहात्म्य
गाथा . अंतोमुहुत्त-मित्तं-पि, फासियं हुज्ज जेहिं सम्मत्तं । तेसिं अवड्ढ पुग्गल-परियट्टो चेव संसारो ॥५३॥
अन्वय जेहिं अंतोमुत्तमित्तं अपि सम्मत्त फासियं हुज्ज, तेसिं संसारो चेव अवड्ढपुग्गल-परियो, ॥५३॥
., संस्कृत पदानुवाद अन्तर्मुहूर्त्तमात्रमपि, स्पृष्टं भवेद् पैः सम्यक्त्वम् । तेषामपार्द्ध-पुद्गल, परावर्तश्चैवसंसारः ॥५३।।
शब्दार्थ अंतोमुहुत्त - अतर्मुहूर्त . तेसिं - उनका मित्तं - मात्र
अवड्ढ - अपार्ध (अंतिम आधा) अपि - भी
पुग्गलपरियट्टो - पुद्गल परावर्त फासियं - स्पर्श
(ही बाकी रहता है) हुज्ज - हुआ है
चेव - निश्चय ही जेहिं - जिनके द्वारा
संसारो - संसार सम्मत्तं - सम्यक्त्व
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श्री नवतत्त्व प्रकरण