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भावार्थ वे सब सिद्धों के जीव सर्व जीवों के अनंतवें भाग में है । उनका दर्शन और ज्ञान क्षायिक है और जीवत्व पारिणामिक भाव का है ॥४९॥
विशेष विवेचन प्रस्तुत गाथा में भाग तथा भाव, इन दो द्वारों का विश्लेषण है।
७. भागद्वार : सिद्ध जीव - जो कि अभव्य से अनंतगुणा है, तब भी संसारी जीवों के अनंतवें भाग जितने ही हैं। निगोद के असंख्य गोले हैं । एक एक गोले में असंख्य निगोद तथा एक-एक निगोद में अनन्त-अनन्त जीव हैं। ऐसी एक ही निगोद के भी अनन्तवें भाग जितने तीनों (भूत-भविष्य-वर्तमान) काल के सब सिद्ध के जीव हैं । इसी नवतत्त्व की अंतिम ६० वीं गाथा में यही कहा गया है -
जइयाइ होइ पुच्छा, जिणाणमग्गम्मि उत्तरं तइआ। इक्कस्स निगोयस्स, अणंतभागो में सिद्धिगओ ॥
अर्थात् जिनेश्वर के मार्ग (शासन) में जब-जब जिनेश्वर को प्रश्न पूछा जाता है, तब तब यही उत्तर होता है कि एक निगोद का अनंतवां भाग ही मोक्ष में गया है।
८. भावद्वार : इसके ५ भेद हैं - औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक तथा पारिणामिक । सिद्ध के जीवों में दो भाव है - क्षायिक तथा पारिणामिक । कर्मक्षय से उत्पन्न होने वाले भाव को क्षायिक तथा वस्तु के अनादि (स्वाभाविक स्वभाव) (अकृत्रिम स्वभाव) को पारिणामिक भाव कहते हैं । केवलज्ञान-केवलदर्शन ये सिद्धों के क्षायिकभाव है और जीवत्व यह एक पारिणामिक भाव है । इन पाँच भावों के प्रभेद निम्न हैं -
१) औपशमिक भाव-२ : (१) सम्यक्त्व, (२) चारित्र ।
२)क्षायिकभाव-९ : (१) दान, (२) लाभ, (३) भोग, (४) उपभोग, (५) वीर्य, (६) केवलज्ञान, (७) केवलदर्शन, (८) सम्यक्त्व, (९) चारित्र ।
३) क्षायोपशमिक भाव-१८ : (१) मतिज्ञान, (२) श्रुतज्ञान, (३) अवधिज्ञान, (४) मनःपर्यवज्ञान, (५) मतिअज्ञान, (६) श्रुतअज्ञान, (७)
श्री नवतत्त्व प्रकरण
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