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विभंगज्ञान, (८) चक्षुदर्शन, (९) अचक्षुदर्शन, (१०) अवधिदर्शन, (११-१५) दानादि ५ लब्धि, (१६) सम्यक्त्व, (१७) सर्वविरति, (१८) देशविरति ।
४) औदयिकभाव २१ : (१-४) गति-४, (५-८) कषाय-४, (९११) लिंग-३, (१२) मिथ्यात्व, (१३) अज्ञान, (१४) असंयम, (१५) संसारीपन, (१६-२१) लेश्या-६
५) पारिणामिक भाव-३ : (१) जीवत्व, (२) भव्यत्व, (३) अभव्यत्व । ___ उपरोक्त भावों के ५३ भेदों में से सिद्ध परमात्मा में केवल ३ भेद ही घटित होते हैं । क्षायिक भाव नौ होने पर भी मूलगाथा में केवलज्ञान-दर्शन ये दो ही भाव सिद्ध परमात्मा को कहे हैं। यह आत्मा के ज्ञान-दर्शन गुण की मुख्यता से कहा है। दर्शन का अर्थ सम्यक्त्व भी ग्रहण किया जाता है। अतः प्रकारान्तर से क्षायिक सम्यक्त्व भी ग्रहण करने से ३ क्षायिकभाव कहे गये हैं । यहाँ ऐसा उल्लेख होने से दूसरे ६ भावों का निषेध नहीं समझना चाहिए । शास्त्रों में कहीं दो का तो कहीं ३, ५ या ९ भावों का भी ग्रहण किया गया है। साधुरत्न सूरिकृत नवतत्त्व की अवचूरी में क्षायिक ज्ञान तथा क्षायिक दर्शन ये दो ही भाव कहे है । ७ भावों का स्पष्ट निषेध है। नवांगी वृत्तिकार अभयदेवसूरि कृत नवतत्त्व भाष्य में तथा इसी भाष्य की श्री यशोविजयजी उपाध्याय कृत वृत्ति में, तत्त्वार्थ सूत्र, आचारांग नियुक्ति एवं महाभाष्य में क्षायिक सम्यक्त्व सहित ३ भाव कहे हैं। शेष ६ का निषेध है। तत्वार्थ श्लोक वार्तिक तथा राजवार्तिक में क्षायिकवीर्य सहित ५ भाव कहे है परंतु कई आचार्य के मत में ९ ही भावों को सिद्ध परमात्मा में घटित किया है । यह,सब अपेक्षाकृत विवेचन है । सिद्धों को पारिणामिक भाव में केवल जीवत्व ही घटित किया है। भव्यत्व नहीं । जो मोक्ष में जाने योग्य हो, उसे भव्य कहते हैं । सिद्ध परमात्मा तो मोक्ष में ही बिराजमान है, तब मोक्ष की योग्यता कैसे घेट सकती है ? इस अपेक्षा से शास्त्रों में 'नो भव्वा नो अभव्वा' कहा है, अर्थात् सिद्ध परमात्मा न भव्य है, न अभव्य, यह वचन युक्तिपूर्वक समझ में आने योग्य है।
चारित्र के ५ भेदों में से कोई भी चारित्र सिद्ध में नहीं है। जिसके द्वारा ८ कर्मों का क्षय करके मोक्ष में जाया जा सके, वह चारित्र है । चारित्र के व्युत्पत्तिपरक लक्षणों में से कोई भी लक्षण सिद्ध में घटित नहीं होता । अतः सिद्ध में क्षायिक चारित्र (यथाख्यात चारित्र) का भी अभाव है। सिद्धों में 'नो
श्री नवतत्त्व प्रकरण
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