________________
आदि घृणित वस्तुएँ डाली जाती है । वैसे ही यदि जीव उच्चकुल-जाति में जन्म लेता है, तो वह उच्चगोत्र कहलाता है। तथा कसाई-भंगी आदि नीच कुल में जन्म लें, वह नीच गोत्र कहलाता है। इस कर्म का स्वभाव जीव के अगुरुलघु गुण को आवृत्त करना है।
८. अन्तराय कर्म : यह कर्म भंडारी के समान है। जैसे राजा अथवा सेठ दान देना चाहता है परन्तु यदि तिजोरी का हिसाब-किताब रखने वाला भंडारी-खजांची खजाने में घाटा या कमी बतलाकर इंकार कर दें, तो राजा इच्छा होने पर भी दान नहीं दे पाता है। इसी प्रकार जीव का स्वभाव भी अनन्तदान-लाभ-भोग-उपभोग-वीर्य लब्धिवाला है परंतु अन्तराय कर्म के उदय से जीव का यह स्वभाव प्रकट नहीं हो पाता ।
कर्म की ८ मूल तथा १५८ उत्तर प्रकृतियाँ
गाथा
इह नाणदंसणावरण, वेय मोहाउ नाम गोआणि । • विग्धं च पण-नव-दु-अट्ठवीस चउ-ति-सय-दु-पणविहं ॥३९॥
व अन्य इह पण नव दु अट्ठबीस चउ. तिसय दु-पविहं, नाण दंसणावरण वेय मोह आउ नाम गोआणि च विग्धं ॥३९॥
... संस्कृत पदानुवाद अत्र ज्ञान दर्शनावरण वेद्यमोहायुर्नाम गोत्राणि । विघ्नं च पंच-नव द्वयष्टाविंशतिं चतुस्त्रिंशत् द्वि पंचविधम् ॥३९॥
शब्दार्थ इह - यहाँ
नाम - नाम नाण - ज्ञानावरणीय
गोआणि - गोत्र दंसणावरण - दर्शनावरणीय विग्धं - अंतराय (विघ्न) वेय - वेदनीय
च - और मोह - मोहनीय
पण - पांच आउ - आयुष्य
नव - नौ
श्री नवतत्त्व प्रकरण
१२३