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३. अनुभाग बन्ध : जीव द्वारा ग्रहण किये हुए कर्मपुद्गलों में शुभाशुभ फल देने की न्यूनाधिक शक्ति अनुभाग बन्ध है, जिसे रसबन्ध भी कहते हैं। जीव जिस समय कर्मपुद्गलों का बन्ध करता है, उसकी शुभाशुभ अवस्था भी उसी समय निश्चित हो जाती है। इसलिये शुभाशुभ तथा तीव्र-मन्द का बंध समय में जो नियत होता है, वही अनुभाग (रस) बंध है । जैसे कोई लड्डू अधिक मीठा और कोई लड्डू कम मीठा होता है, वैसे ही कर्मबन्ध में तीव्र-मन्दादि रस पडता है।
४. प्रदेश बंध : जैसे कोई लड्डू ५० ग्राम तो कोई १०० ग्राम का होता है, उसी प्रकार कोई कर्म अधिक दलिकों वाला है, तो कोई अल्पदलिकों वाला है। प्रत्येक कर्म के प्रदेशों की संख्या समान नहीं होती। आयु के सबसे अल्प, नाम-गोत्र के उससे विशेष, किन्तु परस्पर तुल्य, ज्ञान-दर्शन तथा अन्तराय के उससे विशेष, परन्तु परस्पर तुल्य, मोहनीय के उससे विशेष तथा वेदनीय के सबसे विशेष प्रदेशों का बंध होता है ।
उपरोक्त चारों प्रकार के बन्ध, बन्ध के समय समकाल में ही बन्धते हैं, अनुक्रम से नहीं । प्रकृति बंध तथा प्रदेश बंध का कारण मन, वचन तथा काया के योग है । स्थिति या स्स.बंध का कारक कषाय अर्थात् क्रोध-मान-मायालोभ तथा राग-द्वेष के निमित है।
'८ कर्मों का स्वभाव
र गाथा पड-पडिहार-ऽसिं, मज्ज, हड-चित्त कुलाल भंडगारीणं । जह एएसिंभावा, कम्माण व जाण तहभावा ॥३८॥
अन्वय पड-पडिहार-असि-मज्ज-हड-चित्त कुलाल-भंडगारीणं, जह एएसिं भावा, कम्माण वि तह भावा जाण ॥३८॥
संस्कृतपदानुवाद पटप्रतिहारासिमद्य, हडिचित्रकुलाल भाण्डागारिणाम् । यथैतेषां भावाः, कर्मणामपि जानीहि तथा भावाः ॥३८॥
श्री नवतत्त्व प्रकरण