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छह आभ्यन्तर तप, ये कुल १२ भेद निर्जरा तत्त्व के हैं ।
निर्जरा : आत्मा पर लगे हुए कर्मरूपी मल का देशतः दूर होना निर्जरा कहलाता है। कर्मों की निर्जरा करने के लिये तप एक सशक्त माध्यम है । वासनाओं तथा इच्छाओं को क्षीण करने के लिये शरीर, मन तथा इन्द्रियों को जिन-जिन उपायों से तापित किया जाता है, वे सभी तप हैं। ..
बाह्य तप : जिसमें शारीरिक क्रिया की प्रधानता होती है तथा जो बाह्य द्रव्यों की अपेक्षा वाला होने से दूसरों को दिखाई दे, जो शरीर को तपाता है, वह बाह्य तप है । इसके छह भेद हैं।
१) अनशन : न अशन इति अनशन । जिसमें अशन-अर्थात् आहार ग्रहण नहीं होता, वह अनशन है। मर्यादित समय तक या जीवनपर्यंत चारों प्रकार के आहार का त्याग करना, अनशन तप है।
२) ऊनोदरी : ऊन यानि कम । ओदरी अर्थात् उदरपूर्ति । जितनी भूख हो, उससे कुछ कम आहार करना, ऊणोदरी तप कहलाता है। चार रोटी की भूख होने पर भी तीन रोटी खाना, ऊनोदरी तप है।
३) वृत्तिसंक्षेप : खाने की विविध वस्तुओं का संक्षेप करना, वृत्तिसंक्षेप
तप है।
४) रसत्याग : रस अर्थात् दूध, दही, घी, तेल, गुड और पक्वान्न (तली हुई वस्तु), इन छह भक्ष्य विगई का यथायोग्य तथा मदिरा, मांस, शहद, मक्खन, इन चार महाविगई (अभक्ष्य) का सर्वथा त्यार्य करना, रसत्याग तप कहलाता है। . ५) कायक्लेश : आतापना (ठण्डी गर्मी को सहन करना) या विविध आसन, केश लुंचन, पद विहरण द्वारा शरीर को कष्ट देना, कायक्लेश तप है।
६) संलीनता : अर्थात् संकोचन करना । अशुभ मार्ग में प्रवृत्त होती हुई इन्द्रियों का संकोचन करना या रोकना, संलीनता तप है।
आभ्यंतर तप : जिसमें मानसिक क्रिया की प्रधानता हो, जो बाह्य द्रव्यों की अपेक्षा न रखे, जिस तप से लोग तप करने वाले को तपस्वी न कहे, जिसमें शरीर नहीं बल्कि मन और आत्मा तपे, ऐसा अंतरंग तप आभ्यंतर तप कहलाता
१. प्रायश्चित्त : किये हुए अपराध की शद्धि करना अथवा जिससे मल
श्री नवतत्त्व प्रकरण