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६ माह है। इस चारित्र के २ भेद है । इत्वर कथिक तथा यावत्कथिक । इत्वर अर्थात् अल्पकाल । जिसमें भविष्य में दुबारा सामायिक व्रत का व्यपदेश हो, उसे इत्वरकथिक सामायिक कहा जाता है । यावज्जीवन की सामायिक यावत्कथिक सामायिक है।
२. छेदोपस्थापनीय चारित्र : प्रथम दीक्षा लेने के बाद विशिष्ट श्रुत का अभ्यास कर चुकने पर विशेष शुद्धि के निमित्त जो जीवनपर्यंत पुनः दीक्षाग्रहण की जाती है अथवा प्रथम ली हुई दीक्षा में दोषोत्पत्ति आने से पूर्व चारित्र पर्याय का छेद करके पुनः नये सिरे से जो दीक्षा का आरोपण किया जाता है, वह छेदोपस्थापनीय चारित्र है।
। इसके भी दो भेद है : (१) निरतिचार छोदोपस्थापनीय (२) सातिचार छेदोपस्थापनीय । यदि मुनि ने मूलगुण का धात किया हो तो पूर्व में पालन की हुई दीक्षा का छेद करके पुनः चारित्र का उच्चारण (ग्रहण) करना, यह छेद अर्थात् प्रायश्चितवाला चारित्र सातिचार छेदोपस्थापनीय है। छोटी दीक्षा वाले (सामायिक चारित्रवाले) मुनि के या एक तीर्थंकर के अनुशासन से दूसरे तीर्थंकर के शासन में जानेवाले मुनि को जो व्रत आरोपर्ण करवाया जाता है, वह निरतिचार छेदोपस्थापनीय चारित्र है।
३. परिहारविशुद्धि चारित्र : परिहार - त्याग । जिस चारित्र में परिहार तप विशेष से चारित्र तथा कर्म निर्जरा रूप विशेष शुद्धि होती है, उसे परिहार विशुद्धि चारित्र कहते है।
विशिष्ट श्रुतधारी नौ साधुओं का संघ अपने आत्मा की विशुद्धि के लिये अपने गच्छ-समुदाय से अलग होकर, गुरु आज्ञा लेकर विशिष्ट तपोध्यान रूप जिस अनुष्ठान को साधता है, वह परिहार विशुद्धि चारित्र है ।
४. सूक्ष्मसंपराय चारित्र : सूक्ष्म अर्थात् किट्टिरूप (चूर्णरूप) अति अल्प संपराय अर्थात् बादर लोभ कषाय के क्षयवाला जो चारित्र है, वह सूक्ष्म संपराय चारित्र कहलाता है । क्रोध-मान तथा माया, ये तीन कषाय क्षय होने के बाद अर्थात् मोहनीय की २८ प्रकृतियों में से लोभ के बिना २७ प्रकृतियों का क्षय होने के बाद तथा संज्वलन लोभ के भी बादर संज्वलन लोभ का उदय समाप्त होने के बाद जब केवल सूक्ष्म लोभ का ही उदय रहता है, तब दसवें सूक्ष्म
श्री नवतत्त्व प्रकरण
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