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१२. धर्म के साधक अरिहन्त दुर्लभ भावना : धर्म के साधकसंस्थापक अरिहंत प्रभु की प्राप्ति होना अतिदुर्लभ है। जिससे समस्त प्राणियों का कल्याण हो, ऐसे सर्वगुण सम्पन्न श्रुत - चारित्र तथा श्रमण - श्रावक धर्म का उपदेश अरिहंतो ने किया । वह धर्म ही सत्य है, हितकारी तथा कल्याणकारी है, जो अरिहंतो द्वारा प्ररूपित है । इस प्रकार का चिंतन करना धर्म साधक अर्हत दुर्लभ भावना है। इसे धर्मस्वाख्यात भावना भी कहते हैं । इस भावना का चिंतन धर्मरूचि अणगार ने किया था ।
पांच चारित्र
गाथा
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सामाइअत्थ पढमं, छेओवट्ठावणं भवे बीअं । परिहार विसुद्धीअं, सुहुमं तह सपरायं च ॥३२॥ तत्तो अ अहक्खायं खायं सव्वम्मि जीव लोगम्मि । जं चरिऊण सुविहिया, वच्छंतिं अयरामरं ठाणं ॥ ३३॥
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अन्वय
अत्थ पढमं सामाइयं, बीअं छेओवद्वावणं भवे, परिहार, विसुद्धीअं, तह सुहुमं च संपरायं ॥३२॥
अ तत्तो अहक्खायं, सव्वम्मि जीव लोगम्मि खायं, जं चरिउण सुविहिया, अयरामरं ठाणं वच्चति ॥३३॥
संस्कृत पदानुवाद
सामायिकमथ प्रथमं, छेदोपस्थापनं भवेद् द्वितीयम् । परिहार विशुद्धीकं, सूक्ष्मं तथा सांपरायिकं च ॥३२॥ ततश्च यथाख्यातं, ख्यातं सर्वस्मिन् जीवलोके । यच्चरित्वा सुविहिता, गच्छन्त्याजरामरं स्थानं ॥ ३३ ॥
शब्दार्थ गाथा-३२
सामाइअ - सामायिक चारित्र छेओवद्वावणं छेदोपस्थापनीय
अत्थ अब
भवे - है
पढमं - पहला
बीअं - दूसरा चारित्र
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श्री नवतत्त्व प्रकरण