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का नाम अन्यत्व भावना है । यह भावना मृगापुत्र ने भायी थी।
६. अशुचित्व भावना : यह सुंदर दिखने वाला शरीर रस, रूधिर, मांस, मेद, मज्जा, अस्थि तथा वीर्य, इन सप्त धातुओं से निर्मित है । पुरुष के ९ द्वार तथा स्त्री के १२ द्वारों से सदैव गंदगी व अशुचि बहती रहती है। इस अशुचिमय शरीर से सुगंध भी दुर्गंध में तथा सुंदर, स्वादिष्ट आहार भी विष्टा के रूप में परिवर्तित हो जाते हैं । इस प्रकार ऐसे घृणित शरीर पर मोह-आसक्ति रखना ठीक नहीं है, ऐसी विचारणा अशुचित्व भावना है । इसका चिंतन सनत्कुमार चक्रवर्ती ने किया था। . ___७. आश्रव भावना : आश्रव के ४२ द्वारों से कर्मों का आगमन आत्मा में सतत् चालू है । इसके द्वारा जीव सुख-दुःख का अनुभव करता रहता है। कर्मों का आगमन कैसे रुके, जिससे आत्मा का उद्धार हो सके, इस चिंतन को आश्रव भावना कहते है । यह भावना समुद्रपाल मुनि ने भायी थी।
८. संवर भावना : समिति, गुप्ति, परीषह, यतिधर्म, भावना तथा चारित्र इनके ५७ भेदों का स्वरूप चिन्तन करना संवर भावना है। यह भावना हरिकेशी मुनि ने भायी थी।
९. निर्जरा भावना : आत्मा के साथ लगे हुए कर्मों को १२ प्रकार के तप द्वारा निर्जरित करने का चिन्तन निर्जरा भावना है। इसका चिंतन अर्जुन अणगार ने किया था।
१०. लोकस्वभाव भावना : लोक के संस्थान व लोक में रहे हुए द्रव्यों के गुण, पर्याय आदि का चिंतन करना लोकस्वभाव भावना है। इसका चिंतन शिव राजर्षि ने किया था।
११. बोधिदुर्लभ भावना : बोधि अर्थात् बोध-सम्यक्त्व । दुर्लभ - मुश्किल से प्राप्त हो । अनादिकाल से इस संसार में परिभ्रमण करते हुए जीवों को सम्यग्-दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप त्रिरत्न की प्राप्ति अति दुर्लभ है। संसार की चक्रवर्ती, वासुदेवादि पदवियाँ पाना सरल है पर सम्यक्त्व रूप बोध प्राप्त होना मुश्किल है । इस प्रकार का चिन्तन बोधिदुर्लभ भावना है। इस भावना का चिंतन ऋषभदेव के ९८ पूत्रों ने किया था।
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श्री नवतत्त्व प्रकरण