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के संयोग के बिना ही जल, मिट्टी आदि बाह्य संयोगों के मिलने पर स्वतः उत्पन्न होने वाले मेंढक आदि सम्मूच्छिम तिर्यंच पंचेन्द्रिय तथा मनुष्य के मलमूत्र - थूक आदि १४ अशुचि स्थानों में उत्पन्न होनेवाले सम्मूच्छिम मनुष्य विशिष्ट प्रकार के मनोविज्ञान रुप दीर्घकालिकी संज्ञा अर्थात् - भूत-भविष्यकाल संबंधी दीर्घकालीन पूर्वापर की विचारशक्ति से रहित एवं मनस् शक्ति से रहित होने के कारण असंज्ञी पंचेन्द्रिय कहलाते है । जो असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण किये बिना ही मर जाते हैं, उन्हें अपर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय कहा जाता है ।
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१२. पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय: जो असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव स्वयोग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण करके मरते हैं, वे पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय कहलाते हैं ।
१३-१४. अपर्याप्त पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय: स्पर्शादि पांच इन्द्रियों वाले, माता-पिता के संयोग से उत्पन्न होनेवाले मनुष्य एवं तिर्यञ्च तथा उपपात जन्म से पैदा होने वाले देव तथा नारकी मन एवं दीर्घकालिकी संज्ञा से युक्त होने के कारण संज्ञी पंचेन्द्रिय कहलाते हैं । यदि ये जीव स्वयोग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण किये बिना ही मर जाय तो अपर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय कहलाते हैं और यदि पूर्ण करके मरे तो पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय कहलाते हैं
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प्रत्येक अपर्याप्त जीव प्रथम तीन पर्याप्तियाँ ही पूर्ण कर सकता है, जबकि पर्याप्त जीव स्वयोग्य ४, ५ अथवा ६ पर्याप्तियाँ पूर्ण करके ही मरता है । पर्याप्तियों का वर्णन छट्ठी गाथा में करेंगे ।
जीव का लक्षण
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गाथा
नाणं च दंसणं चेव, चरितं च तवो तहा ।
वरियं वओगो य, एयं जीवस्स लक्खणं ॥५॥
अन्वय
नाणं च दंसणं चेव, चरितं च तवो तहा वीरियं य उवओगो, एयं जीवस्स
लक्खणं ॥५॥
श्री नवतत्त्व प्रकरण