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देने वाला तैजस शरीर है । यह शरीर प्रत्येक संसारी जीव के साथ अनादिकाल से संलग्न है।
१२. कार्मण शरीर : कार्मण वर्गणाओं से बना हुआ, ज्ञानवरणीयादि अष्ट कर्मों का समूह कार्मण शरीर है ।
१३-१४-१५. उपांग (अंगोपांग) : जिस कर्म से अंग-उपांग तथा अंगोपांग मिले, उसे अंगोपांग नामकर्म कहते है। हाथ, पैर, पीठ, सिर, छाती
और पेट, ये अंग है । अंग के साथ जुडे अंगुली आदि अवयव उपांग है । रेखायें अंगोपांग कहलाती है । अंग, उपांग और अंगोपांग दिलाने वाले कर्म को अंगोपांग नाम कर्म कहते है। प्रथम तीन शरीर औदारिक, वैक्रिय, आहारक के ही अंगोपांग होते है। शेष दो के नहीं होते । अतः अंगोपांग नामकर्म तीन प्रकार का है। १. औदारिक अंगोपांग, २. वैक्रिय अंगोपांग, ३. आहारक अंगोपांग ।
१६. प्रथम वज्रऋषभनाराच संघयण : वज्र - खीला, ऋषभ - वेष्टनपट्टी, नाराच-दोनों ओर मर्कटबन्ध, संहनन-हड्डियों का बंधन । जिसमें दोनों तरफ से मर्कटबन्ध से बंधी हुई दो हड्डियों पर तीसरी हड्डी का पट्टा लगा हो और इन तीनों हड्डियों को भेदने वाली हड्डी की कील लगी हुई हो, उसे वज्रऋषभनाराच संघयण कहते है।
१७. प्रथम समचतुरस्त्र संस्थान : छह संस्थानों में प्रथम यह संस्थान तीन शब्दों से निष्पन्न है - सम-समान, चतु:-चार, अस्त्र-कोण । अर्थात् पद्मासन लगाकर बैठने पर जिस शरीर के चारों कोण एक समान हो, उस आकृति को समचतुरस्त्र संस्थान कहते हैं। जिसके चारकोण - आसन और ललाट के मध्य, दोनों घुटनों के मध्य, दांये कंधे से बांये घुटने के मध्य, बांये कंधे से दांये घुटने के मध्य में समान अंतर होता है, वह सम्पूर्ण शुभ अवयव एवं अद्भुत सौंदर्यशाली शरीराकृति समचतुरस्त्र संस्थान कहलाती है।
१८-२१. वर्णचतुष्क : इसमें वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, इन चार प्रकृतियों का समावेश है । इस कर्म के उदय से जीव को शारीरिक वर्णादि सुंदर प्राप्त होते हैं । वर्ण में श्वेत, रक्त, पीत शुभ वर्ण है। गंध में सुरभि गंध, रस में आम्ल, मधुर और कषायरस तथा स्पर्श में लघु, मृदु, उष्ण तथा स्निग्ध, ये चार शुभ स्पर्श है। ये कुल ११ शुभ प्रकृतियाँ हैं, जो शुभ वर्णचतुष्क नाम कर्म के उदय से जीव को प्राप्त होती है। ----------------------- श्री नवतत्त्व प्रकरण