________________
७३. ऋषभनाराच संहनन : जिस शरीर में हड्डियों के जोड दोनों तरफ मर्कटबंध वाले हो, उनके उपर हड्डी की पट्टी भी हो परंतु हड्डी की कील न हो, वह ऋषभनाराच संघयण है।
७४. नाराच संहनन : मात्र दो मर्कटबंध हो, पट्टी और कील न हो, ऐसा कायिक गठन नाराच संघयण कहलाता है।
७५. अर्धनाराच संहनन : न पट्टी हो, न कील हो, मात्र एक तरफ मर्कट बंध हो, ऐसा कायिक गठन अर्धनाराच संघयण है।
७६. कीलिका संहनन : हड्डियों के जोड़ में मात्र कीली हो, ऐसा कायिक गठन कीलिका संहनन कहलाता है। '
७७. सेवार्त्त संहनन : शरीर के औडों में हड्डियों के दोनों कोने आपस में मात्र स्पर्श करते हो, ऐसा कायिक गठन सेवार्त्त संहनन कहलाता है।
७८-८२. अप्रथम संस्थान : प्रथम समचतुरस्त्र संस्थान को छोडकर शेष ५ संस्थानों की प्राप्ति होना।
७८. न्यग्रोध परिमंडल संस्थान : शरीर की रचना वटवृक्ष के समान हो अर्थात् नाभि से ऊपर के अवयव विस्तृत (लक्षणयुक्त) तथा नीचे के अवयन छोटे (लक्षणरहित) हो, वह न्यग्रोध परिमंडल संस्थान है।
७९. सादि संस्थान : नाभि से नीचे का भाग लक्षण युक्त तथा उपर का भाग लक्षण रहित हो, वह सादि संस्थान है ।
८०. वामन संस्थान : शरीर बौना हो, हाथ-पांव-मस्तक-कमर, ये चारों लक्षण रहित हो व उदर आदि लक्षणयुक्त हो, वह वामन संस्थान है।
८१. कुब्ज संस्थान : शरीर कुब्ज हो, छाती-पीठ-पेट टेढे हो पर हाथपांव ठीक हो, वह कुब्ज संस्थान है ।
८२. हुंडक संस्थान : सभी अंग लक्षण रहित हो, वह हुंडक संस्थान है।
इस पाप तत्त्व के ८२ भेद इस प्रकार है - ज्ञानावरणीय - ५, दर्शनावरणीय-९, वेदनीय-१, मोहनीय-२६, आयुष्य-१, नाम-३४, गोत्र-१, अंतराय-५ इन समस्त अशुभ प्रकृतियों का बंध १८ पापस्थानकों का अप्रशस्त भाव से सेवन करने पर पाप के रूप में होता है।
श्री नवतत्त्व प्रकरण
८४