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उल्लेख आगे की तीन गाथाओं में स्पष्ट किया गया है ।
आश्रव : कर्मों का आगमन द्वार आश्रव कहलाता है। जीव की शुभाशुभ योगप्रवृत्ति से आकृष्ट होकर कार्मण वर्गणा का आत्मा में प्रविष्ट होना आश्रव है। जीवरूप नाव में पुण्य-पाप रुप जल का प्रविष्ट होना आश्रव कहलाता है। ___पांच इन्द्रियों के माध्यम से आत्मा के अनुभव में आनेवाले पुद्गल के स्वरूप को इन्द्रियों का विषय कहते है। इन इन्द्रियों के २३ विषय हैं, जो इस प्रकार है -
१. स्पर्शनेन्द्रिय आश्रव : इसके ८ विषय हैं - कर्करा-मृदु, भारी-हल्का, शीत-उष्ण, रूक्ष-स्निग्ध ।
२. रसनेन्द्रिय आश्रव : इसके विषय हैं - खट्टा, मीठा, कवआ, कसैला, तीखा ।
३. घ्राणेन्द्रिय आश्रव : इसके दो विषय हैं - सुगंध - दुर्गंध । ..
४. चक्षुरिन्द्रिय आश्रव : इसके ५ विषय हैं - कृष्ण, नील, पीत, रक्त तथा श्वेत ।
५. श्रोत्रेन्द्रिय आश्रव : इसके ३ विषय है - जीव शब्द, अजीव शब्द, मिश्र शब्द ।
ये २३ विषय यदि आत्मा के अनुकूल हो तो सुख का अनुभव व प्रतिकूल हो तो दुःख का अनुभव होता है । इनके द्वारा होने वाला कर्मों का आगमन आश्रव कहलाता है।
४ कषाय : कष्-संसार, आय-वृद्धि । जो संसार को बढाये, वह कषाय है । यह क्रोध मान-माया-लोभ आदि ४ भेद वाला है । प्रत्येक कषाय अनंतानुबंधी आदि ४ भेदों की अपेक्षा से १६ प्रकार का है।
६. क्रोधाश्रव : क्रोध अर्थात् गुस्सा । इसके करने से आत्मा में होने वाला कर्मों का आगमन क्रोधाश्रव है।
७. मानाश्रव : मद, अहंकार, अभिमान करने पर आत्मा में जो कर्मों का आगमन होता है, उसे मानाश्रव कहते है ।
८. मायाश्रव : कपट करके काम में मिली सफलता से जीव को जो
श्री नवतत्त्व प्रकरण