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तथा लोभ, इन चार कषायों के उदय से जीव को देशविरति धर्म की प्राप्ति नहीं होती।
४४-४७. प्रत्याख्यानीय चतुष्क : इन कषायों के उदय से जीव को सर्वविरति धर्म अर्थात् चारित्र की प्राप्ति नहीं होती।
४८-५१. संज्वलन चतुष्क : संज्वलन कषाय चतुष्क (क्रोध-मानमाया-लोभ) के उदय से जीव को यथाख्यात चारित्र की प्राप्ति नहीं होती अर्थात् जीव वीतरागता को प्राप्त नहीं करता। .
इन सभी चारों भेदवाले १६ कषायों का स्वभाव तथा स्थिति भिन्न-भिन्न है जिसे पीछे प्रश्नोत्तरी में स्पष्ट किया गया है।
५२. हास्य : जिसके उदय से जीव को हँसी आवे ।। ५३. रति : जिसके उदय से जीव को विषयों में आसक्ति हो । ५४. शोक : जिसके उदय से मन में शोक या उदासी व्याप्त हो । ५५. अरति : जिससे जीव को धर्म-साधना में अरुचि हो । ५६. भय : जिसके उदय से भर्य या डर लगे ।
५७. जुगुप्सा : जिससे जीव को पदार्थों पर अकारण या सकारण घृणा हो।
५८-६०. वेदत्रिक : जिस कर्म के उदय से स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद की प्राप्ति हो।
५८. स्त्रीवेद : जिस कर्म के उदय से स्त्री को पुरुष के साथ रमण करने की इच्छा हो, वह स्त्रीवेद है।
५९. पुरुषवेद : जिस कर्म के उदय से पुरुष को स्त्री के साथ रमण करने की अभिलाषा हो, वह पुरुषवेद है।
६०. नपुसंकवेद : जिस कर्म के उदय से पुरुष और स्त्री, दोनों के साथ रमण करने की इच्छा हो, वह नपुंसकवेद है।
६१-६२. तिर्यञ्चद्विक : अर्थात् तिर्यञ्चगति व तिर्यञ्चानुपूर्वी । जिस कर्म के उदय से जीव को ये दोनों प्रकृतियाँ उदय में आये, वह तिर्यश्चद्विक है। ६३-६६. जाति-चतुष्क : एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, इन
श्री नवतत्त्व प्रकरण
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