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२२. अगुरूलघु : इस कर्म के उदय से जीव को न लोहे जैसा अतिभारी, न वायु समान अति हल्का शरीर प्राप्त होता है।
२३. पराघात : जिस कर्म के उदय से सामने वाला व्यक्ति बलवान होने पर भी निस्तेज हो जाता है, उसे पराघात नाम कर्म कहते हैं। इस कर्म का उदय सबल को नहीं, निर्बल परन्तु तेजस्वी को होता है।
२४. श्वासोच्छास : जिस कर्मोदय से सुखपूर्वक श्वासोच्छास लिया जाय, छोडा जाय, वह श्वासोच्छास नाम कर्म है।
२५. आतप : इस कर्म के उदय से जीव का शरीर शीत होने पर भी उष्ण प्रकाश देने वाला होता है।
२६. उद्योत : इस कर्म के उदय से जीव का' स्वयं का शरीर शीतल हो तथा उसका प्रकाश भी शीतल हो, चन्द्रप्रकाशवत् जो शीतल प्रकाश दे, वह उद्योत नाम कर्म है।
२७. शुभविहायोगति : जिसके उदय से जीव की चाल बैल, हंस, हाथी के समान मस्त, धीमी और गंभीर होती है, उसे शुभविहायोगति नामकर्म कहते
२८. निर्माण : इस कर्म के उदय से जीव के शरीर संबंधी अंगोपांग अपने-अपने स्थान पर व्यवस्थित होते हैं।
२९. सदशक : त्रसदशक अर्थात् जिसमें त्रस आदि दश प्रकृतियों का समावेश हो । इन दस प्रकृतियों का उल्लेख १७वीं गाथा में है। प्रथम प्रकृति वस है। जिस कर्म के उदय से जीव को इच्छानुसार गमन करने की शक्ति प्राप्त होती है, वह त्रस नाम कर्म है।
३०. बादर : जिस कर्म के उदय से जीव को चर्मचक्षु के गोचर इच्छानुसार बादर शरीर की प्राप्ति होती है, वह बादर नामकर्म है।
३१. पर्याप्त : जिसके उदय से जीव स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण करे, वह पर्याप्त नामकर्म है।
३२. प्रत्येक : जिससे एक जीव को स्वतन्त्र एक शरीर की प्राप्ति होती है, वह प्रत्येक नामकर्म है।
३३. स्थिर : जिससे हड्डी, दाँत आदि स्थिर अवयव प्राप्त हो, वह स्थिर नामकर्म है।
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श्री नवतत्त्व प्रकरण