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१. मतिज्ञानावरणीय : जो इन्द्रिय और मन से उत्पन्न होने वाले ज्ञान पर आवरण करे, वह मतिज्ञानावरणीय है।
२. श्रुतज्ञानावरणीय : जो पढने-सुनने से होने वाले ज्ञान पर आवरण करे, वह श्रुतज्ञानावरणीय है।
३. अवधिज्ञानावरणीय : जो इन्द्रिय और मन के सहयोग बिना आत्मा को रूपी पदार्थों के साक्षात् होने वाले ज्ञान पर आवरण करे, वह अवधिज्ञानावरणीय है।
४. मनःपर्यवज्ञानावरणीय : मन और इन्द्रियों के सहयोग बिना ढाई द्वीप में रहने वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के मनोगत भावों को जानने वाले ज्ञान पर आवरण करे, वह मनःपर्यवज्ञानावरणीय है।', ' ।
५. केवलज्ञानावरणीय : लोकालोक के संपूर्ण ज्ञान पर जो आवरण करे, वह केवलज्ञानावरणीय है।
६-१०. अंतराय कर्म : इस कर्म के भी ५ भेद है :
६. दानान्तराय : दान योग्य सामग्री पास में होने पर भी जीव को दान देने का उत्साह नहीं होता, वह दानान्तराय है।
७. लाभान्तराय : दातार मिला हो, योग्य सामग्री भी सुलभ हो, . विनयपूर्वक याचना की हो तथापि अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति न होना लाभान्तराय
८. भोगान्तराय : त्याग-प्रत्याख्यान न होने पर भी, भोग्य साधन-सामग्री, विद्यमान होने पर भी जीव उसका भोग न कर सके, वह भोगान्तराय है।
९. उपभोगान्तराय : मकान, वस्त्राभूषण, स्त्री आदि उपभोग्य सामग्री विद्यमान होने पर भी जीव उसका उपभोग न कर सके, वह उपभोगान्तराय है।
१०. वीर्यान्तराय : शरीर निरोग, स्वस्थ तथा बलवान् हो तथापि सत्वहीन या शक्ति रहित हो या शक्ति होने पर भी काम न आये, धर्मानुष्ठान का पालन न हो सके, वह वीर्यान्तराय है।
११-१९. दर्शनावरणीय कर्म : जो आत्मा के दर्शन गुण को आच्छादित करे, वह दर्शनावरणीय कर्म है । इसके भी नौ भेद हैं :
११. चक्षुदर्शनावरणीय : चक्षुदर्शन (चक्षु की शक्ति) का जिससे आच्छादन हो, वह चक्षुदर्शनावरणीय है।
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श्री नवतत्त्व प्रकरण