________________
३४. शुभ : जिसके उदय से नाभि के उपर के अवयव प्रशस्त शुभ हो, वह शुभ नाम कर्म है ।
३५. सुभग : जिसके उदय से जीव उपकार करे, न करे, फिर भी सभी के मन को प्रिय लगे, उसे सुभग नामकर्म कहते है ।
३६. सुस्वर : जिसके उदय से जीव का स्वर कोयल जैसा तथा श्रोता के मन में प्रीति उत्पन्न करे, वह सुस्वर नाम कर्म है । ३७. आदेय : जिससे जीव के वचन युक्तियुक्त हो अथवा युक्तिविकल हो तथापि लोग उसे बहुमान दे, वह आदेय नाम कर्म है ।
३८. यश : जिससे जीव की सर्वत्र कीर्ति फैलती है, वह यश नाम कर्म
है ।
है ।
मधुर
३९. देवायुष्य : इस कर्म के उदय से जीव को देवत्व की प्राप्ति होती
हो
४०. मनुष्यायुष्य : इससे जीव मनुष्य जीवन को प्राप्त करता है । ४१. तिर्यंचायुष्य : इससे जीव तिर्यञ्च अर्थात् पशु-पक्षी आदि के जीवन को प्राप्त करता है ।
४२. तीर्थंकर : इस कर्म के उदय से जीव तीन लोक में पूज्य पदवी को प्राप्त करता है । चतुर्विध धर्मसंघ की स्थापना कर अंत में निर्वाण को प्राप्त करता है ।
इस पुण्य तत्त्व के समस्त भेद अघाती कर्मों के भेद में सम्मिलित होते हैं । १ वेदनीय कर्म, १. गोत्र कर्म, ३; आयुष्य कर्म तथा ३७ नामकर्म की प्रकृतियाँ, इस प्रकार कुल ४२ भेद पुण्य तत्त्व के है ।
पाप तत्व के ४२ भेद
――――
"गौथा
नाणंतराय दसगं, नव बीए नी- असाय मिच्छत्तं । थावरदस नरयतिगं, कसाय पणवीस तिरियदुगं ॥ १८ ॥ इग-बि-ति चउ जाइओ, कुखगइ उवघाय हुंति पावस्स । अपसत्थं वन्नचउ, अपढम - संघयणसंठाणा ॥ १९ ॥ थावर सुहुम अपज्जं, साहारणमथिरमसुभदुभगाणि । दुस्सरणाइज्जजसं, थावरदसगं विवज्जत्थं ॥२०॥
श्री नवतत्त्व प्रकरण
७३