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वर्ण चतुष्क, अगुरूलघु, पराघात, श्वासोच्छ्वास, आतप, उद्योत, शुभ विहायोगति, निर्माण, सदशक, देवायुष्य, मनुष्यायुष्य, तिर्यञ्चायुष्य तथा तीर्थंकरपना ॥१६॥
स, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग (सौभाग्य), सुस्वर, आदेय और यश, ये त्रस आदि दशक है ॥१७॥
विशेष विवेचन पूर्व की १४ गाथाओं में जीव तथा अजीव तत्त्व के स्वरूप, लक्षण एवं भेदों का समग्रता से वर्णन किया गया। प्रस्तुत गाथात्रय में पुण्य तत्त्व की ४२ प्रकृतियों का वर्णन है।
पुण्य : पुण्य अर्थात् शुभ कर्म । जो आत्मा को पवित्र करे, जिसकी शुभ प्रकृति हो और सुंदर परिणाम हो, वह पुण्य है। यह ४२ प्रकार का है। इन ४२ प्रकार की प्रकृतियों का उदय होने पर जीव शुभ कर्म रूपी पुण्य का भोग करता है। पुण्य को बांधने में निमित्त बनने वाली क्रिया को शुभ आश्रव भी कहते है । ४२ प्रकार का पुण्यबंध होने में नौ प्रकार की प्रवृत्तियाँ निमित्त बनती
१. अन्नपुण्य - पात्र को अन्न देने से पुण्य होता है । २. पानपुण्य - पात्र को पानी देने से पुण्य होता है । ३. लयन पुण्य- पात्र को स्थानादि देने से पुण्य होता है । ४. शयन पुण्य- पात्र को शय्या, पट्टादि देने से पुण्य होता है । ५. वत्थपुण्य - पात्र को वस्त्रादि देने से पुण्य होता है। ६. मन पुण्य - दान-शील-तप आदि मैं मन रखने से पुण्य होता है । ७. वचन पुण्य- मुख से सत्य, मधुर वचन उच्चारण करने से पुण्य होता है। ८. काय पुण्य - काया को शुभ व्यापार, परोपकार, विनय, वैयावृत्य आदि में
लगाने से पुण्य होता है। ९. नमस्कार पुण्य - देव-गुरु को नमस्कार करने से पुण्य होता है ।
पुण्य तत्त्व के ४२ भेदों का विवरण इस प्रकार है -
१. शातावेदनीय : जिस कर्म के उदय से जीव को विविध सुख भोगने के साधन, सामग्री व शक्ति मिले, उसे शाता वेदनीय कर्म कहते है ।
२. उच्चगोत्र : जिस कर्म के उदय से जीव को उत्तम कुल, जाति, वंशादि श्री नवतत्त्व प्रकरण
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