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नित्य है तथा भिन्न-भिन्न अवस्थाओं को प्राप्त करने वाला द्रव्य अनित्य है। छह द्रव्यों मे पुद्गल तथा जीव अनित्य है। हालांकि हर आत्मा नित्य है क्योंकि उसके स्वभाव, गुण में परिवर्तन नहीं होता तथापि देवादि गतियों में परिभ्रमण कर पर्यायों को परिवर्तित करता रहता है। इस अपेक्षा से जीव द्रव्य को अनित्य कहा है। धर्मास्तिकायादि ४ द्रव्य सदाकाल अपने स्वरूप में स्थिर रहने से नित्य है। यद्यपि प्रत्येक द्रव्य उत्पाद, व्यय और ध्रुव स्वभाव वाला होने से नित्यानित्य है तथापि स्थूल अवस्था की अपेक्षा से यहाँ विचारणा की गयी है।
९. कारण : जो द्रव्य अन्य द्रव्य के कार्य में उपकारी कारणभूत हो, वह कारण द्रव्य है और वह कारण द्रव्य जिन द्रव्यों के कार्य में कारणभूत हुआ हो, वह अकारण द्रव्य है । छह द्रव्यों मे धर्मास्तिकायादि पांच द्रव्य कारण है तथा एक जीव द्रव्य अकारण है। जैसे कुम्हार के कुंभ कार्य में चक्र-दंडादि द्रव्य कारण और कुम्हार स्वयं अकारण है। उसी प्रकार जीव के गति आदि कार्यों में धर्मास्तिकाय आदि तथा योगादि कार्यों में पुद्गल उपकारी कारण है परंतु इन पांचों द्रव्यों के लिये जीव उपकारी नहीं है।
१०. कर्ता : जो द्रव्य अन्य द्रव्य की क्रिया के प्रति अधिकारी हो, वह कर्ता है । उसके उपभोग में आने वाले द्रव्य अकर्ता है । छह द्रव्यों में जीव द्रव्य कर्ता है तथा शेष ५ अकर्ता है।
११. सर्वगत (सर्वव्यापी) : जो द्रव्य संपूर्ण स्थान को व्याप्त करके रहे, वह सर्वव्यापी है तथा जो अमुक स्थान को व्याप्त करके रहे, वह देशव्यापी है। आकाश द्रव्य लोकालोक प्रमाण - सर्वव्यापी होने से सर्वगत है तथा शेष पांच द्रव्य लोकाकाश में ही होने से देशव्यापी है।
१२. अप्रवेशी : एक द्रव्य का अन्य द्रव्य रूप हो जाना प्रवेश कहलाता है। जो द्रव्य अन्य द्रव्यरूप में परिवर्तित हो जाते है, वे सप्रवेशी द्रव्य कहलाते हैं और जो अन्य द्रव्य में प्रविष्ट न होते हुए स्वयं के स्वरूप में कायम रहते है, वे अप्रवेशी द्रव्य कहलाते है । यद्यपि जगत में समस्त द्रव्य एक दूसरे में परस्पर प्रवेश करके एक ही स्थान में रहे हुए है तथापि कोई भी द्रव्य निज
श्री नवतत्त्व प्रकरण