Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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देव !
१. उत्तरवर्ती सभी मात्रामों ने रस को प्रायः ब्रह्मानन्दसहोदर पर परमानन्दस्वरूप माना है । करुण और भयानक तथा बीभत्स जैसे रसों को भी सुखात्मक एस माना गया है । साहित्यकार मिब्वनाथ ने सभी रसों को ऐकान्तिक सुखात्मकता का प्रतिपादन करते हुए लिखा है
sentदावपि रसे जायते यत् परं सुखम् । सचेतखामनुप्रवः प्रमाणं तंत्र केवलम् ।। किन सेषु यदा दुःखं न कोऽपि स्यात् तम्मुतः । तथा सतावणादीनां पचिता दुःस हेतुरुर ।।
विश्वनाथ प्रावि के इस सुसाश्यकतावाद के विपरीत अभिनवगुप्त ने प्रत्येक रस को सुखदुःखोभयात्मक रस माना है । अर्थात् उनके मत में प्रत्येक एक में सुख की प्रधानता होते हुए भी दुःख का स्पर्श रहता है । उन्होंने लिखा है
[ साहित्यदर्पण परि० ३,४०५]
इत्यानन्दरूपता सर्वरसानाम् । किन्तूपरञ्जक विषयवशात् तथामपि कटुकिता स्पर्शोऽस्ति वीरस्येव । स हि क्लेशसहिष्णुतादिप्राण एन ।" [हिन्दी अभिनवभारती पृ० ४७८ ]
इनमें भी शृङ्गार, हास्य, वीर तथा प्रद्भुत इन चार रसों में सुख की प्रधानता के साथ दुःख का नुवेध रहता है। इसके विपरीत रौद्र, भयानक, करुरण तथा बीभत्स इन चार रसों में दुःख की प्रधानता के साथ सुख का अनुवेध माना है । केवल शान्त रस को ही उन्होंने नितान्त सुखरूप माना है । प्रभिनवभारती के प्रथम अध्याय में इस विषय का विस्तारपूर्वक विवेचन करते हुए अभिनवगुप्त ने लिखा है-
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" स च सुख - दुःखरूपेण विचित्रेण समनुगतो न तु तदेकात्मा । तथाहि -रति-हासउत्साह - विस्मया सुखस्वभावत्वम् । तत्र तु चिरकालव्यापि सुखानुसन्धिरूपत्वेन विषयोन्मुख्यप्रारणतया तद्विषशंसाबाहुल्येन प्रपायभीरुत्वाद् दुःखांशनुवेधों रतेः । हासस्य सानुसन्धानस्य विद्य त्सदृशस्तात्कालिकं ल्पदुःखानुवेधः सुखानुगतः । उत्साहस्य तात्कालिक - दुःखायास निमज्जनरूपानुसन्धिना भावि बहुजनोपकारिचित्तरकालमा विसुसमा चिकीर्षात्मना सुखरूपता । विस्मयस्य निरनुसन्धानतत्तुल्यसुखरूपता ।
क्रोध-भय-शोक- जुगुप्सानां तु दुःखस्वरूपता । तत्र चिरकालदुःखानुसन्धिप्राणो विषयगताssत्यन्तिकनाशभावना तदाकांक्षाप्राणतया सुखदुःखानुवेधवान् क्रोध: । निरनुसन्धितात्कालिककुःसप्राणतया तदण्गमाकांक्षोत्प्रेक्षित सुखानुसम्भिन्नं भवम् । ईकालिकस्रव भी विषय नाशजः प्राक्तनसुखस्मरणानुविद्धः सर्वथैव दुःखरूपः शोकः । उत्पाद्य मानदुःखानुसन्धानजीवितविषयात् पलायनपरायण रूपा निषिष्यमा नच कित सुखामुथिया कुतुप्सा ।
समतपूर्वदःख सञ्चय स्मरणप्राणितः सम्भाविततदुपरमबलम यो निर्वेदः । [हिन्दी] अभिनवभारती ४० २१६-२२४]
इन तीनों अनुच्छेदों में अभिनवगुप्त ने श्रृङ्गार, हास्य, वीर तथा प्रदभुत रसों में सुख की प्रधानता दे साथ-साथ दुःखानुवेष की, तथा रोड, भयानक, कaar तथा बीभत्स रसों में दुःख की प्रधानता के साथ सुखानुवेध की चर्चा करते हुए धमें निर्दोष को नितान्त सुसमय ठहराया है।
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