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ज्ञान आदिका विकास नही होता है । अन्तर्मुहूर्तकं बाद उनका शरीर पर्याप्त होता हैं, पूर्ण तैय्यार हो जाता है। देवोकी वाल्यावस्था एक अन्तर्मुहूर्त है तत्पश्चात वे युवा दिखने लगते है।
देवीके शरीरमें हड्डी, खुन, मांस नही होता हैं। उनका श्वास सुगंधित होता है। उनको रोग नही आता, बुढापा नही आता । देवोंका शरीर वैक्रिय होता हैं और शुभ परमाणुओसे बना होता है। उनको कभी आलस्य, थकान या निंद नही आती । उनके शरीर पर पसिना नही आता, कान नाक, आंख और जीभ पर मैल नही जमता। उनके मल, मुत्र, कफ नही आते, वे सदा पवित्र रहते है। उनके शरीर की परछाई नही पडती । उनके फुलोंकी माला कभी मुरझाती नही है । उनकी पलके कभी झपकती नही है । उनके पैर भूमिका स्पर्श नहीं करते है। वे आकाशगामी होते है। देवताओंमें समचतुरस्त्र संस्थान होता है । भवनपतिसे लेकर दुसर देवलांक तक शरीरकी अवगाहना, उंचाई सात हाथकी है उसके आगे घटते घटते पांच अनुत्तर विमानांमें एक हाथकी अवगाहना है।
(२) रंग / वर्ण:
देवताओंके शरीर के रंग अनेक प्रकार के होते है। कुछ देवता देदिप्यमान स्वर्ण वर्णके होते हैं तो कुछ गौरवर्णी होते हैं। कुछ देवता श्यामवर्णी होते हैं तो कोई देवता शंखवर्णी या नीलवर्णी होते हैं। कोई देवता लालमणिकं समान रक्तवर्णी होते है | शरीरका वर्ण चाहे कैसा भी हो सभी प्रकारके देवता सुंदर, आकर्षक, मनोहारी लगते है। वे अनेक प्रकारके रुप धारण कर जब अपने विमानमें चढते हैं या वाहन पर सवार होते है तो वहीत ही सुशोभित होते है। (३) लिंग:
तीनो ही लिंगवाले, स्त्रीलिंग, पुरुषलिंग, नपुसकलिंग जीव देवगतिमें जा सकते हैं और देवगति से निकलकर जीवको तीनो ही लिंग प्राप्त हो सकते है परंतु दंवगतमें दो ही लिंग पाये जाते हैं स्त्रीलिंग और पुरुपलिंग । देवताओंमें नपुसकलिंग नही होता है। जीव यदि आराधक हो तो देवगतिमें पुरुपलिंग ही प्राप्त होता हैं और यदि विराधक हो तो स्त्रीलिंग या पुरुपलिंग दोनांमे से कोई भी वन सकता है। (४) लेश्याः
जिसके कारण कर्म आत्माको चिपकते है, वंधको प्राप्त होते हैं उसे लेश्या कहते है । लेश्या छह है कृष्ण, नील, कापोत, तेजस, पद्म और शुक्ल । प्रथम तीन लेश्या अशुभ है जो अधोगति का कारण है और अंतिम तीन शुभलेश्या है जो उच्चगति का कारण है । भवनपति और व्यन्तर देवोमें प्रारंभकी चार लेश्याए होती है, ज्योतिपी और पहले दूसरे देवलोक में तेजोलेश्या होती है। तीसरे से पाचवे तक पद्मलेश्या होती है। छट्टे से छब्बीसवे देवलोक में शुक्ल लेश्या होती है।
कविवर्य श्री हरजसरायजीकृत 'देवरचना' + २५