Book Title: Jain Sahityana Akshar Aradhako
Author(s): Malti Shah
Publisher: Virtattva Prakashak Mandal

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Page 636
________________ वर्तमान युग संशोधन का युग है। आचार्यश्री के विचारोंमें वर्तमान ज्ञान-विज्ञान, राजनीति और समाजशास्त्र का गहरा चिन्तन भी हुआ करता था। उनके प्रवचन लोगों के अन्तर की गहराई तक पहुँचने में सफल रहे । उन्होंने तीज-त्योहारों के विशेष दिनों में इतिहास और पौराणिक संदर्भों को उद्घाटित किया । इनकी वर्तमान जीवन पर असर, उपयोग और प्रेरणा पर भी विशद प्रकाश डालकर उनका ऐतिहासिक तथ्य के साथ, न्यायपूर्ण तरीके से जीवन में उसके महत्त्व को समझाना चाहा है । उन्होंने पर्वों को हर तरह से तरासकर उसका धार्मिक, सामाजिक, आध्यात्मिक, मानसिक तौर पर तथा शान्ति के स्तर पर पहुँचने का मर्म और कर्म है, वह अपने चिंतन मनन द्वारा पुस्तक रूप से प्रकाशित किया है । वर्षीतप पर आगमों का आधार लेकर उनका जो विश्लेषण हुआ है वह यह बताने में सक्षम रहा कि व्यवहार भाषा में इसमें कोई दोष नहीं है । विस्तार शैली से वह तेरह मास और दस दिन का समय होता है । दोनों ही अपनी दृष्टि से यथार्थ हैं । संवत्सर के त्यौहार को उन्होंने लौकिक पर्व से उजागर कर आध्यात्मिकता तक ले जाने का प्रयास किया है। नवीन वर्ष से मनमें नये शुभ संकल्प लेने को कहा है । भारतवर्ष में प्रचलित प्रमुख संवत् का विशद वर्णन प्रस्तुत किया है । और उसका माहात्म्य भी दर्शाया है । हिंदु विधिओंको भी जैन दृष्टिकोण द्वारा समझाने की उनकी रीत थी उससे हर कोई प्रभावित हो जाता है । उन्होंने पर्व के पीछे छीपे तात्पर्य की गहराई तक जाकर उसका चिंतनकर उसकी सूक्ष्मता को सहजता के साथ 'पर्वों की परिक्रमा' पुस्तक द्वारा पाटकों तक पहुँचाने का सक्षम और सफल प्रयास किया है । "भारतीय वाङ्मय में नारी पुस्तक में उनके नारी के प्रति विशाल दृष्टिकोण का परिचय होता है। नारी जाति के प्रति उनके मनमें अधिक आदर व सम्मान रहा है । वैसे तो अध्यात्म के क्षेत्र में नर या नारी का भेद महत्त्व नहीं रखता वल्कि जैनदर्शन हर आत्मा में परमात्मा का दर्शन कराता है । आचार्य देवेन्द्रमुनिजी का अपना यह मानना था कि नारी पुरुष की अपेक्षा अधिक सेवाप्रधान, अधिक सहनशील और अधिक उदार होती है । वे नारीशक्ति को प्रगट करने के लिए सदा आव्हान करते रहते थे । इस शोधप्रबन्ध को आचार्यश्री वोलते जाते थे और श्रीमान् लक्ष्मण भटनागर उसे लिपिवद्ध करते थे । इस ग्रन्थ के लिखवाने पश्चात् तुरन्त ही उनका देहान्त हो गया । इसकी प्रेरणा उनकी भगिनी के विचार से प्राप्त थी । वाद में उनकी भगिनी पू. साध्वी पुष्पवतीजीने इसे पुनः संशोधित कर प्रकाशन हेतु ग्रंथालय को सुप्रत किया । जैनधर्म सदा से ही नारी के प्रति उदार रहा है । अन्य धर्मों में नारी का स्थान, महत्ता दर्शाकर उन्होंने जैनदर्शन में नारी का स्वरूप, उसका स्थान, उसकी महत्ता बताते हुए आगमकाल के वर्णन के साथ-साथ उसके आचार्य श्री देवेन्द्रमुनि (एक साहित्यकार) + ५८७

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