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प.पू. आ. श्री धर्मसूरीश्वरजी म. साहेब के कालधर्म के पश्चात् एक अभूतपूर्व और आश्चर्यकारक वस्तु प्रकाश में आई वह है : “यशः पादरज” - “वालमुनि श्री यशोविजय की उनके मुक भगवंत द्वारा शीशी में संभालकर रखी हुई पादरज' । शिष्य के गुरु के प्रति बहुमान हो ऐसा तो स्वाभाविक लगता है पर गुरु शिष्य को अपने हृदय में स्थान देकर उसकी चरणरज को बहुमूल्य वस्तु की तरह संभालकर रखे ये घटना तो अत्यंत विरल हैं ।
जीवनसिद्धि :
उनके द्वारा साहित्य और कला के क्षेत्र में दिये गये बहुमूल्य योगदान का बहुमान करते हु उन्हे वि.सं. २०२६ मागसर सुद ६ के दिन वालकेश्वर में 'साहित्य कला रत्न' की उपाधि से विभूषित किया गया ।
वे २०-२० वर्ष तक आचार्य पदवी के लिये इन्कार करते रहे । अंत में उनको गुरु प.पू. आ. भगवंत श्री धर्मसूरीश्वरजी के विशेष आग्रह एवं आदेश से आचार्य पदवी स्वीकार करने की सहमति दी। उनका आचार्यपदप्रदान महोत्सव बहुत धूमधाम से पालिताणा में आयोजित हुआ था । तत्कालीन सिद्धांतनिष्ठ प्रधानमंत्री श्री मोरारजीभाई देसाईने पालिताणा आकर उन्हें शाल अर्पण करके वहुमान किया था। वि.सं. २०३५ मागसर सुदी ५ के दिन जिनशासन की इस महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक समारंभ में ५०,००० से अधिक जनसमुदाय उपस्थित था। आज से ३६ वर्ष पहले इस समारंभ में १३ लाख से अधिक खर्च हुए थे । संपूर्ण समारंभ खर्च भारत
सरकार द्वारा उठाया गया था ।
उनके जैन साहित्य सेवा के वढते हुए व्याप का वहुमान करने के लिये वि.. सं. २०५१ पोष सुदी वीज के दिन वालकेश्वर, मुंबई में उन्हें 'साहित्य सम्राट' की उपाधि से विभूषित किया गया ।
स्व-पर धर्म आराधना एवं धर्मप्रभावना के साथ-साथ राष्ट्रहितचिंता उनके हृदय में बसी हुई थी । भगवान महावीर के सिद्धांतो की मुख्यता करते हुए वे हमेशा शांति और एकता पर विशेष भार देते थे । भारत-पाकिस्तान युद्ध के समय जैन समुदाय को राष्ट्र के लिये स्वर्ण अर्पण करने की प्रेरणा की, तो जैन संघो ने उस समय १७ लाख रुपयों का स्वर्ण तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री लालवहादुर शास्त्री को अर्पण किया ।
साहित्यिक कृतियाँ
सुयश जिन स्तवनावली :
इस सुंदर कृति में लगभग १०० भाववाही स्तवन है । दीक्षा पर्याय के ४ वर्ष में ही उनकी आयु के उन्नीसवें वर्ष में प्रथम प्रकाशित यह कृति इतनी अधिक लोकप्रिय हुई है कि इसकी अभीतक १५ से अधिक आवृत्तियाँ छप चुकी
૫૧૬ + ૧૯મી અને ૨૦મી સદીના જૈન સાહિત્યનાં અક્ષર-આરાધકો