Book Title: Jain Sahityana Akshar Aradhako
Author(s): Malti Shah
Publisher: Virtattva Prakashak Mandal

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Page 632
________________ पाट पर जाकर बालक सहजभाव से आरामसे लेट गये । लोगोंने उन्हें उठाने का प्रयास किया । लोग उटकर जैसे मुडे वैसे ही फिर से धन्नालाल पाट पर लेट गये। जैसे कोई ईश्वरीय संकेत क्यों न हो । तव पुनः लोगों के उठाने पर आचार्यश्रीकी दिव्यदृष्टिने वालक की बालक्रीडा देखते ही भावि के शुभ संकेतों को ग्रहण कर लिया और तुरन्त कहा, 'बालक को मत उठाओ ।' तब श्रावकोंने त्वरित प्रश्न किया, 'यह बालक किसका है ? तभी वालक के दादाश्री कन्हैयालजीने खडे होकर उत्तर दिया, 'गुरुदेव ! यह मेरा ही पौत्र है ।' तब आचार्यश्रीने सबके समक्ष उन्हें कहा, 'आपके खानदान में भविष्यमें यदि कोई दीक्षा लेना चाहे तब आप इन्कार मत करना ।' शुरु से ही यह परिवार धार्मिक परिवार रहा । आचार्यश्रीने जो शुभ लक्षण बताये वह इस वालक में मिल रहे थे । 'वह एक दिन परम प्रतापी आचार्य बनेगा ।' वही वालक एक दिन श्रमणसंघका आचार्यसम्राट बना । आचार्यश्री की भविष्यवाणी अक्षरसः सत्य सिद्ध हुई । आचार्य देवेन्द्रमुनि वचपन से ही अत्यंत प्रतिभावंत, चतुर, बुद्धिमान, सरल हृदयी, साहसी, पापभीरू और दृढसंकल्पी थे । उनके व्यवहार से अन्तरमें समाई साधुता के लक्षण स्पष्ट रूप से दिखाई देते थे । वालक धन्नालाल जव ६ वर्प का हुआ तव महास्थविर श्री ताराचंदजी महाराज तथा श्री पुष्करमुनिजी महाराज के कमोल ग्राम में दर्शन किये और प्रथम दर्शन में ही वह उनके चरणों में समर्पित हो गए । उनके शुभपुण्य के उदयमान होने के फलस्वरूप उनको दीक्षा लेने के भाव जगे और मन ही मन उनका शिष्य बनने का संकल्प जग उठा । यह संकल्प त्वरित साकार भी हुआ । उनकी नव वर्ष की अवस्था में विक्रम संवत् १९९७ फाल्गुन शुक्ला ३ (तीज) के दिन आचार्यश्रीने खण्डप ग्राम जिला वाडमेर में दीक्षा ग्रहण कर ली और वह धन्नालाल ‘देवेन्द्रमुनि' बन गये । उनकी पूज्य माताश्री तीजादेवी धर्मपरायणा और गुणीयल तथा विवेकशील थी । यही संस्कार उनके सुपुत्र वालक धन्नालाल और वालिका सुन्दरी के जीवन में भी विकसित हुए । वहन सुन्दरीने पारिवारिक अवरोधों के वावजूद १२ फरवरी सन् १९३८ को गुरुजीश्री मदनकुंवरजी एवं पूज्य महासती सोहनकुंवरजी के पास भागवती दीक्षा ग्रहण की । उनका दीक्षित नाम सावीरत्न श्री पुष्पवतीजी रखा गया। उनकी माताश्री तीजकुमारीने भी अपने पुत्र धन्नालाल को दीक्षा दिलाने के पश्चात् खुद भी दीक्षा ग्रहण कर ली । उनका नाम महासती प्रभावतीजी रखा गया । उनका जीवन भी अत्यन्त निर्मल, ज्ञानध्यान, वैराग्यमय आदर्श जीवन था । देवेन्द्रमुनिजीने अप्रमत्त भाव से विद्याध्ययन शुरू किया । गुरु के चरणों में विनम्रता से समर्पित देवेन्द्रमुनि संस्कृत, प्राकृत, जैनागम व न्यायदर्शन आदि विविध विद्याओंमें निपुणता प्राप्त करते गये । वीस वर्ष की आयु में ही आचार्यश्री देवेन्द्रमुनिने हिंदी साहित्य की अनेक परीक्षाएँ पास कर ली और वे हिंदी में पद्य और गद्य भी लिखने लगे। गुरुभक्ति से श्रुत की प्राप्ति होती है और समर्पण से विद्या का विस्तार होता है आचार्यश्री देवेन्द्रमुनि (एक साहित्यकार) + ५८3

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