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३. शब्द चक्रवर्ती का भण्डार
४. गौतमादि गणधरों के द्वारा जैनागम रूप में गूंथा हुआ सुसमृद्ध ज्ञान का अक्षय खजाना
अभिधान राजेन्द्र कोष अर्थ-मागधी भापा के साथ-साथ सभी प्राकृत भाषा भेदों का मौलिक कोष ग्रन्थ है।
इसमें छोटे बड़े ८०००० शब्द, सहस्राधिक सूक्तियाँ, सहस्राधिक कथोपकथाएँ एवं साढे चार लाख श्लोक संग्रहित हैं।
इस कोष में आचार्य श्री ने शब्दों के अर्थ को स्पष्ट करने के लिए अकारादि वर्णानुक्रम से प्राकृत शब्द, तत्पश्चात् उसका संस्कृत में अनुवाद, लिंग, व्युत्पत्ति एवं उन शब्दों के जैनागमों में प्राप्त विभिन्न अर्थ संसदर्भ दिए हैं। यथास्थान समास आदि का भी संकेत दिया है। आचार्य श्री ने इस कोप में विशालकाय शब्द राशि युक्त संपूर्ण विषय-वस्तु को वैज्ञानिक ढंग से ७ भागों में विभक्त किया है।
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष का प्रथम भाग अभिधान राजेन्द्र कोष के प्रत्येक भाग का प्रारम्भ आपने (आचार्यश्रीने) मंगलाचरण से किया हैं। हर भाग में मंगलाचरणों में वीर एवं वीर की वाणी जिनवाणी को नमस्कार करते हुए आगमों का महत्त्व प्रतिपादित किया। प्रथम भाग का मंगलाचरण
जयति सिरिवीरवाणी, बहुविबुहनमंसिया या सा।
क्त्तव्वयं से बेमि, समासओं अक्खरवकम सो॥ इस ग्रंथ का पटन करने से पहले आवश्यक कतिपय संकेत उन सवको पढ लेना आवश्यक है ताकि ग्रंथ के अध्ययन में किसी प्रकार की असुविधा न हो, न ही शंका रहें। इसके लिए ग्रंथक्रात ने १६ आवश्यक संकेत प्रकाशित किए हैं।
श्री सुधर्मास्वामी ने १ आचारंग सूत्र, २ सूत्रकृतांगसूत्र, ३ स्थानांगसूत्र, ४ समवायांगसूत्र, ५ भगवती सूत्र, ६ ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र, ७ उपासगदशांगसूत्र, ८ अन्तगडदशांगसूत्र, ९ अणुत्तरोववाइयदशांगसूत्र, १० प्रश्न व्याकरण सूत्र, ११ विपाकसूत्र इन ग्यारह अंगो की रचना की है। इन सभी अंगो में अध्ययन मूल श्लोक संख्या उस पर टीका चूर्णि, नियुक्ति, भाष्य और लघुवृत्ति आदि जितनी भी श्लोक संख्या है वह बतलाई गई है। ग्यारह अंगो के सिवाय वारह उपांग १. उववाई, २. रायप्पसेणी, ३. जीवाभिगम, ४. पन्नवणा, ५. जम्बूद्वीप पन्नति, ६. चन्द्रप्रज्ञप्ति, ७. सूर प्रज्ञप्ति, ८. कल्पिका, ९ कल्पावंतसिका, १०. पुष्पिका, ११. पुष्पचुलिका, १२. वहिदिशा है। इन वारह उपांगो की मूल संख्या और इन पर किस आचार्य की टीका है यह भी बताया है।
दस प्रकार के पइन्ना प्रकीर्णक एवं आठ अंग चूलिकाओं का वर्णन है। छ:
श्रीमद् राजेन्द्रसूरिः ओक महान विभूति की ज्ञान अवं तपः साधना + ४११