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'तू प्रभु राता, सेवक राता, राता राता मेला,
पिण नहीं वीर प्रभुजी राता, यह आतम का खेला मीराबाई ने अपनी भक्ति की एकाग्रता व अनाहत नाद की झंकार में कहा था - 'घायल की गति घायल जाने, और न जाने को।' विजयवल्लभ ने भी ध्यान के सोपान पर चढते हुओ कहा -
वेधक वेधकता को जाने, और नहीं तस स्वाद लहंदा काव्य की मधुरता रमणीय शैली में निहित है -
फूल्यों मास वसंत... केतकी जाई मालती... भ्रमर करें झंकार... हंस युगल जल खेलते... मंद पवन की लहर... पूनम चांदनी खिली अहीं रे... घन देख के मोर, जैसे चंद चकोर... बुंद कुसुम बरसावे... मंजर विन नहीं कोयल टहके।
स्तवन ‘फूलों की बहार' में इक्कीस प्रकार के विभिन्न फूलों का अति सुन्दर वर्णन हुआ है। एक अन्य स्तवन में -
भव सागर मेरी नाव अटत है, पांच इन्द्रियां जहां चोर कटत है,
लाख चौरासी भ्रमर नटत है, पार उतारो मेरी नाव जिनंद जी।
अटत, कटत, नटत शब्दों के सहज प्रयोग से भावों को स्वच्छ प्रतिबिंवित किया है।
आचार्य विजयवल्लभ जन्मजात कवि थे। अपनी दीक्षा के चौथे साल में ही संवत १९४८ में होशियारपुर मंदिर की प्रतिष्ठा पर उनकी रचना-स्तवन (विढंस राग में) - 'सेवो भवि वासुपूज्य जिन चंदा' उनकी शुरू की रचना कही जा सकती है।
__ वल्लभसूरि का काव्य मानवतावाद से परिपूर्ण है। उनके लिए कविता कोरा विलास नहीं, जीवन की एक विभूति है। नर से नारायण होने के बारे में, इहलोक
और परलोक के बारे में कविता का स्वर अमर है। अपनी रचनाओं में आत्मनिवेदन करते हैं - 'प्रभु बख्शो अपना सुनूर' हे प्रभु, मुझे आपका स्वरूप प्रदान करो। उनके काव्य में संतो के अभेद भाव की अभिव्यक्ति हुई है।
• 'रमे निज रूप में रामा, भव्य गोपी में है कान्हा,
रहम से रहीम होता है, यथार्थ रूप धारी है * तू ही ब्रह्मा तू ही विष्णु, तू ही शंकर तू ही पारस
देवाधिदेव निर्दोषी, प्रभु गुण गण भण्डारी है, * देव प्रभु ईश्वर खुदा, हरिहर ब्रह्मा राम
तीर्थंकर अरिहंतजी, उनको करूं प्रणाम • हरिहर राम और अल्ला, बुद्ध अरिहंत या ब्रह्मा
अनलहक सच्चिदानंदी, बिला तास्सुब निहारा है।
૮૦ + ૧લ્મી અને ૨૦મી સદીના જૈન સાહિત્યનાં અક્ષર-આરાધકો