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माताजी न्याय, दर्शन, अध्यात्म, सिद्धान्त, धर्म, भक्ति, व्याकरण, गणित, भूगोल, खगोल, नीति, इतिहास, कर्मकाण्ड आदि सभी विषयों पर पूर्ण अधिकार रखती है।
साहित्य की विविध शैलियों जैसे गद्य, पद्य, नाटक, उपन्यास, संस्मरण, आत्मकथा, समीक्षा आदि सभी विद्याओं पर रचनायें की है।
एक ओर तो कोमलमति बालकों को संस्कारित करने के लिये सरल और रोचक भाषा में पाठ्यपुस्तकें तैयार की है तो दूसरी ओर प्राचीनतम संस्कृत-प्राकृत साहित्य षट खण्डागम, अष्ट सहस्री, नियमसार, समयसार आदि पर गुरु गंभीर टीकायें भी लिखी है।
यह उनकी विशेष प्रतिभाशक्ति ही माननी होगी कि बालोपयोगी साहित्य में उनका बच्चों के प्रति आकर्षण झलकता है तो युवाओं के लिये उपयोगी साहित्य को पढकर उनकी युवा-भावना का परिचय मिलता है कि कैसे युवाओं को धर्म के प्रति आकर्षित किया जा सकता है। पुनः जब आगे बढकर प्रौढ ग्रंथो को देखते है तो प.पू. माताजी का जहाँ विद्वानों के प्रति प्रौढ दृष्टिकोण झलकता है वहीं ज्ञान का अथाह सागर उनके अंदर हिलोरे भरते दृष्टिगत होता है।
प.पू. माताजी ने पूर्वाचार्यो द्वारा लिखित चारों अनुयोगों के ग्रंथो का अध्ययन, चिंतन, मनन करके साहित्य क्षेत्र में अनेक अलौ कृतियाँ प्रदान की है। पूर्वाचार्यो द्वारा प्रतिपादित कठिन एवं गहन विषयों को सरल एवं संक्षेप में लिख देना उनकी विशेषता है।
प.पू. माताजी का १-२ दिन का नहीं, अभीतक के ५८ वर्ष के संयम जीवन का नित्यक्रम आर्ष परंपरानुसार आदर्श रहा है। इसी में अवसरोचित उपवासादिव्रत में निराहार रहते हुये, शारीरिक अस्वस्थता - आधि-व्याधि-उपाधि में भी शुद्ध चर्या पालन करते हुए, अन्य कई विपरीतता और प्रतिकूलता का सामना करते हुए अपनी क्षीण काय-वल के वावजूद अपनी अन्तःस्फुरणा एवं दिव्य ज्ञान से जो साहित्य सर्जन किया है एवं अन्य क्षेत्रो में उनको प्रेरणा से जो अभूतपूर्व सृजनात्मक कार्य साकार हुए है वे उनके मनोवल, संकल्पवल, योगबल एवं आत्मवल का मूर्त रूप ही है।
उनके द्वारा रचित, अनूदित एवं टीकाकृत अमूल्य रत्नों के समान उच्च कोटिके ३०० से अधिक रचनाओं का परिचय तो दूर उन सवका नामोल्लेख करना भी इस छोटे से निबंध में संभव नहीं है। ..
अतः उनकी कुछ मुख्य रचनाओं पर यथाशक्ति यथा मति प्रकाश डालने का प्रयत्न किया गया है। संस्कृत साहित्य सर्जनः
प.पू. माताजी ने अपनी लेखनी का प्रारंभीकरण संस्कृत भाषा से किया जब उन्होने २१ वर्ष की आयु में क्षुल्लिकावस्था में 'जिनसहस्रनाम मंत्र' की रचना की। यह मंत्र ही सरस्वती-माता का वरदहस्त बनकर प.पू. माताजी की लेखनी को
साहित्य-साम्राज्ञी प. पू. ज्ञानमती माताजी + २६३