________________
अद्भुत ऊँचाइयों तक ले गये।
२५ वर्ष की आयुमें अपने दीक्षा गुरु आ. श्री वीरसागरजी महाराज की स्तुति उपजातिछंद में १० श्लोकों में बनाई। ---- -
३१ वर्ष की आयु में श्रवणबेलगोला में भगवान बाहुवली के चरणों में बैठकर उनकी स्तुति वसंततिलका के ५१ छंदो में की जिसमें अलंकारो की बहुलता से रत्नजडित आभूषणों के सुसज्जित सुंदर कन्या की भाँति शब्द लालित्य प्रकट हुआ है।
इसके अतिरिक्त हिंदी में १११ पद्यों में वाहुवली लावणी लिखी। वीर सं. २५०७ (सन् १९८१) में इसी लावणी को संगीतबद्ध करकं ७ सप्ताह तक आकाशवानी दिल्ली से 'पाषाण बोलते हैं' इस शीर्षक के अन्तर्गत प्रसारित किया गया था।
कर्नाटक के उस प्रवास में प.पू. माताजी ने कन्नड भाषा सीख ली और तुरंत कन्नड में बाहुवली भगवान तथा अंतिम श्रुतकंवली भद्रवाहु स्वामी की स्तुतियाँ रची एवं कन्नड में ही एक सुंदर बारह भावना लिखी जो वहाँ बहुत प्रचलित हुई।
इस युग की प्रथम रागिनी आर्यिका ‘ब्राह्मी माताजी' की स्तुति अनुष्टुप छंद में ४१ श्लोको में की जो एक अद्वितीय रचना है।
वीर सं. २४१२ (सन् १९६६) की शरदपूर्णिमा के दिन आयुके ३२ वर्प पूर्ण कर ३३वें वर्ष के प्रवेश के दिन 'चन्द्रप्रभस्तुति के ३२ छंद भुजंग प्रयात, शिखरिणी, पृा, द्रुत-विलंबित छंद में वनाकर ३३वें शार्दूल विक्रीडित छंद में पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने की भावना व्यक्त की है।
फिर 'आया छंद में ६३ श्लोको में एक त्रैलोक्य चैत्यवंदन' और ८४ श्लोकों में श्री सम्मेद शिखर वंदना' लिखी। ___प.पू. माताजीने उपर्युक्त स्तुतियों का 'हिंदी पद्यानुवाद' भी स्वयं करके जनसामान्य को उनका रसास्वादन करने की सुविधा प्रदान की। ___प.पू. माताजीने प्रत्येक शरदपूर्णिमा के दिन अपनी आयु के प्रवेश वर्ष की गिनती के अनुसार उतने ही संस्कृत श्लोको की स्तुतियाँ रचकर प्रभु चरणों में समर्पित करके अपनी रुचि और गरिमा को ध्यान में रखते हुए जन्मदिन मनाने की यह अभिनव परंपरा अपनाई है। ३४ वें वर्ष के प्रवेश के दिन 'पृथ्वी' छंद के ३४ श्लोका में भगवान शांतिनाथ की स्तुति रचकर प्रभु चरणों में समर्पित की। भरे अपने मूल गाँव प्रतापगढ राजस्थान के चातुर्मास में उनके ३५ वें वर्ष में प्रवेश की शरद पूर्णिमा के दिन ३५ श्लोकोमें 'पंचमेरु स्तुति' की रचना की। अपनी आयु की ३६वीं शरदपूर्णिमा के दिन ३६ श्लोको में वीर जिन स्तुति' बनाई। ____ प.पू. माताजी का इस काल-खण्ड में अध्ययन-अध्यापन का कार्य भी पूर-वहार में था। समय-समय पर अनेक मुनि-आर्यिका क्षुल्लक-क्षुल्लिका एवं ज्ञान-पिपासु श्रावकश्राविकाओं को अपने विशिष्ट ज्ञान के आधार पर संस्कृत, व्याकरण, न्याय, छंद, अलंकार, सिद्धांत आदि का अध्ययन कराया। कई वार चातुर्मास स्थिरता में प.पू. माताजी कई दिनों तक सुबह ७ से १० बजे तक, मध्याह्न ११ से १२ बजे तक ૨૬૪ + ૧લ્મી અને ૨૦મી સદીના જૈન સાહિત્યનાં અક્ષર-આરાધકો